भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के लक्ष्य भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अनेक देवी देवताओं की पूजा का विधान है जिनमें माँ दुर्गा शक्तिकी उपासना प्रमुख हैं। माँ दुर्गा शक्ति की उपासना को उतना ही प्राचीन माना जाता है , जितना शिववांङ्मय में सर्वप्राचीन साहित्य अपौरुषेय वेद को। यही कारण है कि देवी कहती हैं- 'मैं रुद्रों एवं वसुओं के रूप में विचरण करती हूं।

माँ दुर्गा शक्ति की उपासना से जीव का कल्याण होता है। माँ दुर्गा शक्ति सभी जीवों की रक्षा करने वाली है। सृष्‍टि का संहार और पालन करने की अपार शक्ति उनके पास है। माँ अपने भक्तों के लिए सदैव भक्तों ने हर प्रकार की पूजा और विधान से मां दुर्गा को प्रसन्न करने के जतन किए। लेकिन अगर

आप व्यस्तताओं के चलते ‍विधिवत आराधना ना कर सकें तो मात्र 108 नाम के जाप करें

दुर्गा जी के 108 नाम

महारानी जग कल्याणी तेरी वाहन कमाल है शेर की सवारी माँ तुम्हारी बे मिसाल है

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ॠषिः, अनुष्टुप

छन्दः, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवताः,

सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः ।

1-ॐज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥

2 - दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥

3 - सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।शरण्ये त्र्यंम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ३ ॥ 4 - शरणागतदीनार्तपरित्राणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ४ ॥

5 - सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तु ते ॥ ५ ॥

6 - रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां

7 - त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्र्यन्ति ॥ ६ ॥सर्वबाधाप्रश्मनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि ।एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥

देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

1-सती 2-वैष्णवी 3-चामुंडा 4-साध्वी 5-वाराही 6-भवानी 7-भवप्रीता 8-लक्ष्मी 9-भवमोचनी 10-पुरूषाकृति 11-आर्या 12-विमला 13-दुर्गा 14-उत्कर्षिणी 15-जया 16-ज्ञाना 17-आद्या 18-शूलधारिणी 19-बुद्धिदा 20-पिनाकधारिणी 21-क्रिया 22-त्रिनेत्रा 23-नित्या 24-चंद्रघंटा 25-सर्ववाहनवाहना 26-बहुला 27-चित्रा 28-निशुम्भशुम्भहननी 29-मन: 30-महिषासुरमर्दिनि 31-शक्ति 32-बहुलप्रेमा 33-महातपा 34-मधुर्कटभहंत्री 35-अहंकारा 36-चण्डमुण्डविनाशिनि 37-चित्तरूपा 38-सर्वअसुरविनाशिनि 39-चिता 40-सर्वदानघातिनी 41-चिति 42-सर्वशास्त्रमयी 43-सर्वमंत्रमयी44-सत्ता 45-सर्वअस्त्रधारिणी46-सत्यानंदस्वरुपिणी 47-अनेकशस्त्रहस्ता48-अनन्ता 49-अनेकास्त्रधारिणी 50-भाविनि 51-कुमारी 52-भाव्या 53-एककन्या 54-भव्या 55-कैशोरी 56-अभव्या 57-युवति58-सदागति 59-यति: 60-शाँभवि 61-अप्रौढ़ा 62-देव माता 63-प्रौढा़ 64-चिंता 65-वृद्धमाता 66-रत्नप्रिया 67-बलप्रदा 68-सर्वविद्या 69-महोदरी70-दक्षकन्या 71-मुक्तकेशी 72-दक्षयज्ञविनाशिनी 73-घोररूपा74-अपर्णा 75-महाबला76-अनेकवर्णा 77-अग्निज्वाला 78-पाटला 79-रुद्रमुखी80-पाटलावती81-कालरात्रि 82-पट्टाम्बरपरिधाना 83-तपस्विनी 84-कलमंजिररंजिनी 85-नारायणी86-अमेय विक्रमा 87-भद्रकाली88-क्रूरा 89-विष्णुमाया 90-सुंदरी 91-जलोदरी 92-सुरासुंदरी 93-शिवदूती 94-वनदुर्गा 95-कराली 96मांतंगी 97-अनंता 98-मतंगमुनिपूजिता 99-परमेश्वरी 100-ब्राह्मी 101-कात्यायनी 102-माहेश्वरी 103-सावित्री 104-ऎंद्री 105-प्रत्यक्षा 106-कौमारी 107-ब्रह्मवादिनी 108-बुद्धिबुद्ध

इससे भी माता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती है। भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। माँ जगत् की प्राणाधार हैं और अपने भक्तों की रक्षा के लिए आश्चर्यजनक प्रमाण प्रकट किया करती हैं।

भक्त इसलिए करते हैं ताकि उनका जीवन सफल हो सके माँ दुर्गा शक्ति अपने भक्तों की सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं और इनकी कृपा से समस्त पाप और इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, अत:भक्तों के कष्ट का निवारण ये शीघ्र कर देती हैं । माँ दुर्गा शक्ति के अवतार पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। देश के प्रत्येक क्षेत्र में माँ दुर्गा शक्ति की पूजा की अलग परम्परा है। सभी भक्त अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा और उपासना करते है। परंतु इस युग में भगवान शिव और माँ दुर्गा शक्ति के अवतार को सबसे ज़्यादा पूजा जाता है।

इस ब्लॉग के माध्यम से हिन्दू धर्म को सम्‍पूर्ण विश्‍व में जन-जन तक पहुचाना चाहता हूँ और इसमें आपका साथ मिल जाये तो और बहुत ख़ुशी होगी।

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भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के लक्ष्य भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अनेक देवी देवताओं की पूजा का विधान है जिनमें माँ दुर्गा शक्तिकी उपासना प्रमुख हैं। माँ दुर्गा शक्ति की उपासना को उतना ही प्राचीन माना जाता है , जितना शिववांङ्मय में सर्वप्राचीन साहित्य अपौरुषेय वेद को। यही कारण है कि देवी कहती हैं- 'मैं रुद्रों एवं वसुओं के रूप में विचरण करती हूं।

माँ दुर्गा शक्ति की उपासना से जीव का कल्याण होता है। माँ दुर्गा शक्ति सभी जीवों की रक्षा करने वाली है। सृष्‍टि का संहार और पालन करने की अपार शक्ति उनके पास है। माँ अपने भक्तों के लिए सदैव भक्तों ने हर प्रकार की पूजा और विधान से मां दुर्गा को प्रसन्न करने के जतन किए। लेकिन अगर

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दुर्गा जी के 108 नाम

महारानी जग कल्याणी तेरी वाहन कमाल है शेर की सवारी माँ तुम्हारी बे मिसाल है

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सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः ।

1-ॐज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥

2 - दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥

3 - सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।शरण्ये त्र्यंम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ३ ॥ 4 - शरणागतदीनार्तपरित्राणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ४ ॥

5 - सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तु ते ॥ ५ ॥

6 - रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां

7 - त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्र्यन्ति ॥ ६ ॥सर्वबाधाप्रश्मनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि ।एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥

देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

1-सती 2-वैष्णवी 3-चामुंडा 4-साध्वी 5-वाराही 6-भवानी 7-भवप्रीता 8-लक्ष्मी 9-भवमोचनी 10-पुरूषाकृति 11-आर्या 12-विमला 13-दुर्गा 14-उत्कर्षिणी 15-जया 16-ज्ञाना 17-आद्या 18-शूलधारिणी 19-बुद्धिदा 20-पिनाकधारिणी 21-क्रिया 22-त्रिनेत्रा 23-नित्या 24-चंद्रघंटा 25-सर्ववाहनवाहना 26-बहुला 27-चित्रा 28-निशुम्भशुम्भहननी 29-मन: 30-महिषासुरमर्दिनि 31-शक्ति 32-बहुलप्रेमा 33-महातपा 34-मधुर्कटभहंत्री 35-अहंकारा 36-चण्डमुण्डविनाशिनि 37-चित्तरूपा 38-सर्वअसुरविनाशिनि 39-चिता 40-सर्वदानघातिनी 41-चिति 42-सर्वशास्त्रमयी 43-सर्वमंत्रमयी44-सत्ता 45-सर्वअस्त्रधारिणी46-सत्यानंदस्वरुपिणी 47-अनेकशस्त्रहस्ता48-अनन्ता 49-अनेकास्त्रधारिणी 50-भाविनि 51-कुमारी 52-भाव्या 53-एककन्या 54-भव्या 55-कैशोरी 56-अभव्या 57-युवति58-सदागति 59-यति: 60-शाँभवि 61-अप्रौढ़ा 62-देव माता 63-प्रौढा़ 64-चिंता 65-वृद्धमाता 66-रत्नप्रिया 67-बलप्रदा 68-सर्वविद्या 69-महोदरी70-दक्षकन्या 71-मुक्तकेशी 72-दक्षयज्ञविनाशिनी 73-घोररूपा74-अपर्णा 75-महाबला76-अनेकवर्णा 77-अग्निज्वाला 78-पाटला 79-रुद्रमुखी80-पाटलावती81-कालरात्रि 82-पट्टाम्बरपरिधाना 83-तपस्विनी 84-कलमंजिररंजिनी 85-नारायणी86-अमेय विक्रमा 87-भद्रकाली88-क्रूरा 89-विष्णुमाया 90-सुंदरी 91-जलोदरी 92-सुरासुंदरी 93-शिवदूती 94-वनदुर्गा 95-कराली 96मांतंगी 97-अनंता 98-मतंगमुनिपूजिता 99-परमेश्वरी 100-ब्राह्मी 101-कात्यायनी 102-माहेश्वरी 103-सावित्री 104-ऎंद्री 105-प्रत्यक्षा 106-कौमारी 107-ब्रह्मवादिनी 108-बुद्धिबुद्ध

इससे भी माता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती है। भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। माँ जगत् की प्राणाधार हैं और अपने भक्तों की रक्षा के लिए आश्चर्यजनक प्रमाण प्रकट किया करती हैं।

भक्त इसलिए करते हैं ताकि उनका जीवन सफल हो सके माँ दुर्गा शक्ति अपने भक्तों की सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं और इनकी कृपा से समस्त पाप और इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, अत:भक्तों के कष्ट का निवारण ये शीघ्र कर देती हैं । माँ दुर्गा शक्ति के अवतार पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। देश के प्रत्येक क्षेत्र में माँ दुर्गा शक्ति की पूजा की अलग परम्परा है। सभी भक्त अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा और उपासना करते है। परंतु इस युग में भगवान शिव और माँ दुर्गा शक्ति के अवतार को सबसे ज़्यादा पूजा जाता है।

इस ब्लॉग के माध्यम से हिन्दू धर्म को सम्‍पूर्ण विश्‍व में जन-जन तक पहुचाना चाहता हूँ और इसमें आपका साथ मिल जाये तो और बहुत ख़ुशी होगी।

यह ब्लॉग श्रद्धालु भक्तों की जानकारी तथा उनके मार्गदर्शन के ध्येय हेतु अर्पित एक पूर्णतया अव्यावसायिक ब्लॉग वेबसाइट है।

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Saturday 10 January 2015

मां हिंगलाज माता मंदीर Hinglaj Temple



                                                 मां हिंगलाज माता मंदीर Hinglaj Temple
मां हिंगलाज माता
 ऐसी मान्यता है भगवान श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से सती माता के विछेदित अंग से ब्रह्मरंध्र (सिर का ऊपरी भाग) उनका यहां गिरा था। वहीं पर हिंगलाज माता का मंदिर स्थापित हो गया।
                                थारौ पंथ खड्गों धार ए।
                                 हींगोल बेड़ौ पार ए।।
भौगोलिक स्थिति-
 
यह शक्तिपीठ 25.3° अक्षांश, 65.31° देशांतर के पूर्वमध्य, सिंधु नदी के मुहाने पर (हिंगोल नदी के तट पर) पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के 'हिंगलाज' नामक स्थान पर है  
यह शक्तिपीठ कराची से 250 किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में मकरान तटीय सीमा से यह से लगभग 120 किलोमीटर दूर है और सिंधु नदी डेल्टा से 20 किमी दूर वर्तमान पाकिस्तान में अरब सागर के पास लासवेला जिले की ल्यारी तहसील के मकराना के तटीय क्षेत्र में पास के हिंगोल नेशनल पार्क में हिंगोल नदी के किनारे अघोर पर्वत पर स्थित है 
कराची से फ़ारस की खाड़ी की ओर जाते हुए मकरान तक जलमार्ग तथा आगे पैदल जाने पर 7वें मुकाम पर चंद्रकूप तीर्थ है। यह क्षेत्र अत्यंत शुष्क है अधिकांश यात्रा मरुस्थल से होकर तय करनी पड़ती है, जो अत्यंत दुष्कर है। आगे 13वें मुकाम पर हिंगलाज है। यहीं एक गुफ़ा के अंदर देवी का स्थान है।
यह क्षेत्र हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बॉर्डर पर है।
पौराणिक उल्लेख पुराणों में हिंगलाज पीठ की अतिशय महिमा है
मंदिर के पुजारी

श्रीमद्भागवतके अनुसार 'हिंगुलाया महास्थानम्'। यह हिंगुला देवी का प्रिय महास्थान है
ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि हिंगुला देवी के दर्शन से पुनर्जन्म कष्ट नहीं भोगना पड़ता है।
बृहन्नील तंत्रानुसार यहाँ सती का "ब्रह्मरंध्र" गिरा था। यहाँ पर शक्ति 'हिंगुला' तथा शिव 'भीमलोचन' हैं  
ब्राह्मरन्ध्रं हिंङ्गुलायां भैरवोभीमलोचन:।
कोट्टरी सा महामाया त्रिगुणा या दिगम्बरी।।
(तन्त्रचूड़ामणि, पीठमाला 7)
हिंगलाज माता के संबंध में 2500 वर्ष पुराने वृत्तांत और दस्तावेज तो मिलते ही हैं। इतने वर्षों से हजारों यात्री अपार कष्ट सहते हुए देवी दर्शन के लिए आते रहे हैं। और जैसा ऊपर देवदत्त शास्त्री जी की पुस्तक के अंश से ही पता चलता है, इस यात्रा का अर्थ था-दर्शन या देह त्याग।
इसीलिए राजस्थान के लोक काव्य में हिंगलाज माता की वीरोचित स्तुति गाई गई है और तीर्थयात्री यह प्रार्थना करते हुए चलते थे-
थारौ पंथ खड्गों धार ए,
हींगोल बेड़ौ पार ए।
यानी हे हिंगलाज माता, तुम्हारे दर्शन का मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा विकट है। हे मां, मेरी नैया को पार लगाना और दर्शन देना।
वास्तव में यहां के दर्शन का जो परंपरागत मार्ग है उसमें अनेक छोटे-छोटे पड़ाव आते हैं जो तीर्थ की भावना से जा रहे यात्री के लिए बहुत महत्व पूर्ण हैं।
धर्मशास्त्र में दाधिची जी द्वारा बताया गया एक महत्वपूर्ण मंत्र ईस प्रकार है।
ॐ हिंगुले परमहिंगुले अमृतरूपिणि तनुशक्ति
मनः शिवे श्री हिंगुलाय नमः स्वाहा

पुराणों में हिंगलाज पीठ की अतिशय महिमा
 
पुराणों में हिंगलाज पीठ की अतिशय महिमा है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि हिंगुला देवी के दर्शन से पुनर्जन्म का कष्ट नहीं भोगना पड़ता है। बृहन्नील तंत्रानुसार यहां सती का ब्रह्मरंध्र गिरा था। यहां पर शक्तिहिंगुलातथा शिव भीमलोचन हैं- ब्रह्मरंध्रं हिंगुलायां भैरवो भीमलोचनः।हिंगुलाज को आग्नेय शक्तिपीठ तीर्थ भी कहते हैं, क्योंकि वहां जाने से पूर्व अग्नि उगलते चंद्रकूप पर यात्री को जोर-जोर से अपने गुप्त पापों का विवरण देना पड़ता है तथा भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न करने का वचन भी देना पड़ता है। इसके बाद चंद्रकूप दरबार की आज्ञा मिलती है। देवी के शक्तिपीठों में कामाख्या, काची, त्रिपुरा, हिंगुला प्रमुख शक्तिपीठ हैं। हिंगुला का अर्थ सिंदूर है।
इसे भावसार क्षत्रियों की कुलदेवी माना जाता है। 
  एक लोक गाथानुसार - 
                                       सिर गिरा हिंगलाज में हिंगोल यानी सिंदूर,  
                                                  उसी से नाम पड़ा हिंगलाज
यह इक्यावन शक्तिपीठ में से एक माना जाता है और कहते हैं कि यहां सती माता के शव को भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र से काटे जाने पर यहां उनका ब्रह्मरंध्र (सिर का ऊपरी भाग)गिरा था।
एक लोक गाथानुसार चारणों की प्रथम कुलदेवी हिंगलाज थी, जिसका निवास स्थान पाकिस्तान के बलुचिस्थान प्रान्त में था। हिंगलाज नाम के अतिरिक्त हिंगलाज देवी का चरित्र या इसका इतिहास अभी तक अप्राप्य है। हिंगलाज देवी से सम्बन्धित छंद गीत चिरजाए अवश्य मिलती है। प्रसिद्ध है कि सातो द्वीपों में सब शक्तियां रात्रि में रास रचाती है और प्रात:काल सब शक्तियां भगवती हिंगलाज के गिर में आ जाती है-
सातो द्वीप शक्ति सब रात को रचात रास।
प्रात:आप तिहु मात हिंगलाज गिर में॥
यात्रा का प्रारम्भ
काली माता का मंदिर में आराधना करने के बाद यात्री हिंगलाज देवी के लिए रवाना होते हैं
 
तीर्थ यात्रा हाओ नदी के पास एक जगह पर से शुरू होता है जो कराची से 10 किमी दूर है
वस्तुतः मुख्य यात्रा वहीं से होती है। हिंगलाज जाने के पहले लासबेला में माता की मूर्ति का दर्शन करना होता है। यह दर्शन 'छड़ीदार' (पुरोहित) कराते हैं। वहाँ से शिवकुण्ड (चंद्रकूप) जाते हैं
मां हिंगलाज के मंदिर की यात्रा के लिए मार्ग-

मां हिंगलाज के मंदिर की यात्रा के लिए दो मार्ग हैं एक पहाड़ी तथा दूसरा मरुस्थली। यात्री जत्था कराची से चल कर लसबेल पहुंचता है और फिर लयारी। माता हिंगलाज देवी की यात्रा कठिन है क्योंकि रास्ता काफी ऊबड़-खाबड़ है। इसके दूर-दूर तक आबादी का कोई नामो-निशान तक नजर नहीं आता। रास्ते में कई बरसाती नाले तथा कुएं भी मिलते हैं। इसके आगे रेत की एक शुष्क बरसाती नदी है।


इस इलाके की सबसे बड़ी नदी हिंगोल है जिसके निकट चंद्रकूप पहाड़ हैं। चंद्रकूप तथा हिंगोल नदी के मध्य लगभग 15 मील का फासला है। हिंगोल में यात्री अपने सिर के बाल कटवा कर पूजा करते हैं तथा यज्ञोपवीत पहनते हैं। उसके बाद गीत गाकर अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हैं।
मंदिर की यात्रा के लिए यहां से पैदल चलना पड़ता है क्योंकि इससे आगे कोई सड़क नहीं है इसलिए ट्रक या जीप पर ही यात्रा की जा सकती है। 
काली माता का मंदिर में आराधना करने के बाद यात्री हिंगलाज देवी के लिए रवाना होते हैं
हिंगोल नदी के किनारे से यात्री माता हिंगलाज देवी का गुणगान करते हुए चलते हैं। इससे आगे आसापुरा नामक स्थान आता है। यहां यात्री विश्राम करते हैं।यात्रा के वस्त्र उतार कर स्नान करके साफ कपड़े पहन कर पुराने कपड़े गरीबों तथा जरूरतमंदों के हवाले कर देते हैं।  
इससे थोड़ा आगे काली माता का मंदिर है। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि यह मंदिर 2000 वर्ष पूर्व भी यहीं विद्यमान था। इस मंदिर में आराधना करने के बाद यात्री हिंगलाज देवी के लिए रवाना होते हैं।
चंद्रकूप (शिवकुण्ड) याआग्नेय शक्तिपीठ तीर्थ 
चन्द्रकूप (शिवकुण्ड)

 चन्द्रकूप (शिवकुण्ड
 एक कोण के आकार का ऊँचा टिला या मिट्टी का पहाङ होता है। जिसके उपर चढके, देखने मे कूआँ जैसा मालूम होता है बस फर्क ईतना होता है कि ज्वालामुखी कि तरह ईसमेँ लावा न होकर मिट्टी किचङ होता है , दूसरे शब्दोँ मे हम कहसकते हैँ कि यह एक प्रकार का गारामुखी होता है न कि ज्वालामुखी। यहाँ पर तीन चँन्द्रकूप है, शीव, पार्ववती, गणेश, जब ईसमे नारियल डाला जाता है तो नारियल चन्द्र कुप के गारे मे समा जाता है तो समझा जाता है आगे कि यात्रा करने कि माँ ने आज्ञा देदी है। किसी कारण वँश अगर तिर्थयात्री द्वारा नारियल गारे मे नही समा रहा है(नही डूब रहा है)तो समझा जाता है माँ ने आगे की तिर्थ यात्रा की आज्ञ नही दी है। यह कूप 58 मीटर ऊँचा है।
चँन्द्रकूप है, शीव

चंद्रकूप तीर्थ पहाड़ियों के बीच में धूम्र उगलते एक ऊँचा पहाड़ की चोटी के पास है है। वहाँ विशाल बुलबुले उठते रहते हैं। आग तो नहीं दिखती, किंतु अंदर से यह खौलता, भाप उगलता ज्वालामुखी है।    
पार्ववती  चंद्रकूप
गणेश चंद्रकूप
शिवकुण्ड (चंद्रकूप) इसे  आग्नेय शक्तिपीठ तीर्थभी कहते हैं, क्योंकि वहाँ जाने से पूर्व अग्नि उगलते चंद्रकूप पर यात्री को जोर-जोर से अपने गुप्त पापों का विवरण देना पड़ता है तथा भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न करने का वचन भी देना पड़ता है। जहाँ अपने पाप की घोषणा कर नारियल चढ़ाते हैं। हिंगुलाज को उनका नारियल तथा भेंट स्वीकार हो जाती है त, इसके बाद यात्रा करने की चंद्रकूप दरबार से आज्ञा मिलती है।    
जो यात्री अपने पाप छिपाते हैं, उन्हें यात्रा करने की आज्ञा नहीं मिलती और नारियल वापस लौट आता है। 
हिंगलाज को जिनका नारियल तथा भेंट स्वीकार हो जाती है और जिनकी पाप मुक्ति हो गई और दरबार की आज्ञा मिल गई है, वें यात्री आगे बढ़ जाते हैं।
हिंगलाज माता मंदिर यहां है 'नानी का मंदिर'

भारतीय उपमहाद्वीप में क्षत्रियों की कुलदेवी के रूप में विख्यात हिंगलाज भवानी माता का मंदिर 52 शक्तिपीठों में से एक है। ऐसी मान्यता है भगवान श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से सती माता के विछेदित अंग से ब्रह्मरंध्र (सिर का ऊपरी भाग) उनका यहां गिरा था। वहीं पर हिंगलाज माता का मंदिर स्थापित हो गया।
इस मंदिर को 'नानी का मंदिर' के नाम से भी जाना जाता है।
कहते हैं कि हिंगलाज मंदिर को इंसानों ने नहीं बनाया। यहां पहाड़ी गुफा में देवी मस्तिष्क रूप में विराजमान हैं।
शास्त्रों में इस शक्तिपीठ को आग्नेय तीर्थ कहा गया है।
हिंगलाज देवी की गुफा रंगीन पत्थरों से निर्मित है। माना जाता है कि इस गुफा का निर्माण यक्षों द्वारा किया गया था, इसीलिए रंगों का संयोजन इतना भव्य बन पड़ा है। पास ही एक भैरवजी का भी स्थान है। भैरवजी को यहां पर 'भीमालोचन' कहा जाता है।
यह हिस्सा पाकिस्तान के हिस्से में चले जाने के बाद वाराणसी की एक गुफा क्रीं कुण्ड में बाबा कीनाराम हिंगलाज माता की प्रतिमूर्ति स्थापित की गई है। इन दो स्थलों के अलावा हिंगलाज देवी एक और स्थान पर विराजती हैं, वह स्थान उड़ीसा प्रदेश के तालचेर नामक नगर से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
 
काली माता का मंदिर
में स्थित कई प्राचीन हिंदू मंदिरों में से सबसे ज़्यादा महत्व जिन मंदिरों का माना जाता है उन्हीं में से एक है हिंगलाज माता का मंदिर. ये वही स्थान है जहाँ भारत का विभाजन होने के बाद पहली बार कोई आधिकारिक प्रतिनिधिमंडल गया है. इस अस्सी सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई की पूर्व विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने और इस यात्रा को सफल बनाने में एहम भूमिका निभाई पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ ने. हिंगलाज के इस मंदिर तक पहुँचना आसान नहीं है. हिंदू और मुसलमान दोनों ही इस मंदिर को बहुत मानते हैं. पाकिस्तान स्थित हिंगलाज सेवा मंडली हर साल लोगों को मंदिर तक लाने के लिए यात्रा आयोजित करती है. हिंगलाज सेवा मंडली की ओर से यात्रा के प्रमुख आयोजक वेरसीमल के देवानी कहते हैं कि मुसलमानों के बीच ये स्थान बीबी नानीया सिर्फ़ नानीके नाम से जाना जाता है.
बंटवारे के बाद से ही यहां आनेवाले दर्शनार्थियों की संख्या भले ही बहुत कम हो गई हो लेकिन यह मंदिर आज भी स्थानीय बलोचवासियों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है। इस मंदिर के सालाना जलसे या मेले में केवल हिन्दू ही नहीं आते बल्कि मुसलमान भी आते हैं जो श्रद्धा से हिंगलाज माता मंदिर को 'नानी का मंदर' या फिर 'नानी का हज' कहते हैं। नानी शब्द संस्कृत के ज्ञानी का अपभ्रंस है जो कि ईरान की एक देवी अनाहिता का भी दूसरा नाम है।
मकरान के मनोरम संगमरमर क्षेत्र से अघोर 120 कि.मी है।यह स्थान प्राचीन काल से अघोर तांत्रिकों का मुख्य केन्द्र रहा है। अघोरी वह स्थान है जहां राजा पोरस से युद्ध के बाद सिकंदर की सेनाएं लौटी थीं। यहां तक पूरा रास्ता बीयांबान, रेगिस्तान और दूर काष्ठ कृत्तियों सी सुंदर रेतीली पहाड़ियों का है। इस क्षेत्र में रेगिस्तान का अथाह सागर नीले पानी के खारे अरब सागर से सटा हुआ चलता है और रेतों के बड़े-बड़े टीले, छुटपुट झाड़ियां सागर की लहरों के समीप रहते हुए भी सदियों से प्यासी ही रही हैं। जल की अनंत राशि भी रेत के सागर को एक बूंद नहीं दे पाई, इससे बढ़कर विडम्बना क्या होगी?
हिंगलाज माता मंदीर के ज्योति दर्शन  मुसलमानों द्वारा प्रतिष्ठित है
मुसलमान समूह बनाकर हिंगलाज की यात्रा करते हैं
 
 इस शक्तिपीठ में शक्तिरूप ज्योति के दर्शन होते हैं। कहते हैं, जो स्थानीय मुसलमानों द्वारा प्रतिष्ठित हैअप्रैल के महीने में पाकिस्तान व पूरे बलूचिस्तान और स्थानीय मुसलमान समूह बनाकर हिंगलाज की यात्रा करते हैंऔर इस स्थान पर आकर लाल या भगवा कपड़े, धूप, मोमबत्ती और मिठाई पेश कर इनकी उपासना व पूजा करते हैं। अगरबत्ती जलाते है और शिरीनी का भोग लगाते हैं।मुसलमान इस यात्रा को हिंगुला देवी को 'नानी' तथा वहाँ की यात्रा को 'नानी का हज' कहते हैं।


पाकिस्तान के हिस्से में हिंदू समाज के अंतिम अवशेष हैं-
कहते हैं,कि हिंदू गंगाजल में स्नान करें या मद्रास के मंदिरों में जाप करें, वह अयोध्या जाएँ या उत्तरी भारत के मंदिरों में जाकर पूजा-आर्चना करें, अगर उन्होंने हिंगलाज की यात्रा नहीं की तो उनकी हर यात्रा अधूरी है
गुफ़ा में हाथ व पैरों के बल जाना होता है। हिंगलाज माता मंदिर एक विशाल पहाड़ के नीचे पिंडी के रूप में विद्यमान है जहां माता के मंदिर के साथ साथ शिव का त्रिशूल भी रखा गया है। हिंगलाज माता के लिए हर साल मार्च अप्रैल महीने में लगनेवाला मेला न केवल हिन्दुओं में बल्कि स्थानीय मुसलमानों में भी बहुत लोकप्रिय है। ऐसा कहा जाता है कि दुर्गम पहाड़ी और शुष्क नदी के किनारे स्थित माता हिंगलाज का मंदिर दोनों धर्मावलंबियों के लिए अब समान रूप से महत्वपूर्ण हो गया है
हिंगलाज मुसलमानों के लिए नानी पीरका आस्तान
और हिंदुओं के लिए हिंगलाज देवी का स्थान ।। 

हिंगलाज में हर साल मार्च में हजारों हिंदू आते हैं और तीन दिनों तक जाप करते हैं. इन स्थानों के दर्शन करने वाली महिलाएँ हाजियानी कहलाती हैं और इनको हर उस स्थान पर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है जहाँ हिंदू धर्मावलंबी मौजूद हैंहिंगलाज में एक बड़े प्रवेश द्वार से गुज़र कर दाख़िल हुआ जाता हैयहाँ ऊपर बाईं ओर पक्के मुसाफ़िरख़ाने बने हुए हैंदाईं ओर दो कमरों की अतिथिशाला हैआगे पुख़्ता छतों और पक्के फ़र्श का विश्रामालय दिखाई देता है
पहाड़ की गुफा में माता हिंगलाज देवी का मंदिर है जिसका कोई दरवाजा नहीं – 

यात्री चढ़ाई करके पहाड़ पर जाते हैं जहां मीठे पानी के तीन कुएं हैं। इन कुंओं का पवित्र जल मन को शुद्ध करके पापों से मुक्ति दिलाता है। इसके निकट ही पहाड़ की गुफा में माता हिंगलाज देवी का मंदिर है जिसका कोई दरवाजा नहीं। मंदिर की परिक्रमा में गुफा भी है।
 इस गुफा के संबंध में जनश्रुति
यात्री गुफा के एक रास्ते से दाखिल होकर दूसरी ओर निकल जाते हैं। इस गुफा के संबंध में जनश्रुति है कि यदि दो व्यक्ति इकट्ठा गुफा में से गुजरते हैं तो वे जिंदगी भर भाइयों की तरह रहते हैं। उनमें दुश्मनी या बदनीयती पैदा नहीं होती।
मंदिर के पुजारी और मेला व पुजा-
चैत्र नवरात्र में यहां एक महीने तक काफी बड़ा मेला लगता है। मंदिर की खास बात यह भी है कि पहले कभी इस मंदिर के पुजारी मुस्लिम हुआ करते थे।
हालांकि पुजारी अभी भी मुस्लिम ही है यह मंदिर पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल्य देश में धर्मनिरपेक्षता की मिशाल कायम किए हुए है।
शक्ति पीठ, हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म एवं बावन शक्तिपीठो का निर्माण पौराणिक संदर्भ -
हिन्दू धर्म के अनुसार जहां सती देवी के शरीर के अंग गिरे, वहां वहां शक्ति पीठ बन गईं। ये अत्यंय पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं।
पुराणों के अनुसार सती के शव के विभिन्न अंगों से बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ था। इसके पीछे यह अंतर्पंथा है ,कि दक्ष प्रजापति ने कनखल (हरिद्वार) में 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती पिता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी यज्ञ में भाग लेने गईं। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और पिता से उग्र विरोध प्रकट किया। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से पीड़ित हुई सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर के आदेश पर उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे देवता और ऋषिगण यज्ञस्थल से भाग गये। भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कंधे पर उठा लिया और दुःखी हुए इधर-उधर घूमने लगे। तदनंतर जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहाँ बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिए घोर तपस्या कर शिवजी को पुन: पति रूप में प्राप्त किया। हिंगलाज देवी का चरित्र या इसका इतिहास अभी तक अप्राप्य है।
इक्यावन शक्ति पीठो का वर्णन है- 
मान्यता के अनुसार जब माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह किया तब भगवान शिव वैराग्य धारण कर उनके शव को लेकर ब्रह्मांड में घुमने लगे। भगवान शिव को वैराग्य से दूर करने के लिए विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शव के (विछेदित)टुकड़े कर दिए।
तन्त्रचूडामणि में पीठों की संख्या बावन(52) दी गई है, शिवचरित्र में इक्यावन(51),देवीभागवत में एक सौ आठ(108) और देवीपुराण में 51शक्तिपीठों का वर्णन है। 

मगर कालिकापुराण में छब्बीस(26) उपपीठों का वर्णन भी है।
पर साधारणतया पीठों की संख्या इक्यावन मानी जाती है। इनमें से अनेक पीठ तो इस समय अज्ञात हैं।सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहाँ बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ।
अन्य मंदिर -शक्ति पीठ देवीपाटन तुलसीपुर, जिला बलरामपुर  उत्तर प्रदेश, विंध्यवासिनी मंदिर, मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश,महामाया मंदिर, अंबिकापुर, अंबिकापुर, छत्तीसगढ़, योगमाया मंदिर, दिल्ली, महरौली, दिल्ली, हिमाचल-प्रदेश में नयना देवी पीठ (पंचकूला) भी विख्यात है। गुफा में प्रतिमा स्थित है। कहा जाता है कि यह भी शक्तिपीठ है और सती का एक नयन यहाँ गिरा था। इसी प्रकार उत्तराखंड के पर्यटन स्थल मसूरी के पास सुरपुंडा देवी का मंदिर (धनौल्टी में) है। यह भी शक्तिपीठ है। कहा जाता है कि यहाँ पर सती का सिर धड़ से अलग होकर गिरा था। माता सती के अंग भूमि पर गिरने का कारण भगवान श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से सती माता के समस्तांग विछेदित करना था।

"शक्ति" अर्थात देवी दुर्गा, जिन्हें दाक्षायनी या पार्वती रूप में भी पूजा जाता है।
"भैरव" अर्थात शिव के अवतार, जो देवी के स्वांगी हैं।
"अंग या आभूषण" अर्थात, सती के शरीर का कोई अंग या आभूषण, जो श्री विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से काटे जाने पर पृथ्वी के विभिन्न स्थानों पर गिरा, आज वह स्थान पूज्य है और शक्तिपीठ कहलाता है।

 यहां पूरी शक्तिपीठों की सूची दी गई है-
क्रम सं०
स्थान
अंग या आभूषण
शक्ति
भैरव
1
हिंगुल या हिंगलाज, कराची, पाकिस्तान से लगभग 140कि.मी. उत्तर-पूर्व में
ब्रह्मरंध्र (सिर का ऊपरी भाग)
कोट्टरी
भीमलोचन
2
शर्कररे, कराची पाकिस्तान के सुक्कर स्टेशन के निकट, इसके अलावा नैनादेवी मंदिर, बिलासपुर, हि.प्र. भी बताया जाता है।
आँख
महिष मर्दिनी
क्रोधीश
3
सुगंध, बांग्लादेश में शिकारपुर, बरिसल से 20 कि.मी. दूर सोंध नदी तीरे
नासिका
सुनंदा
त्रयंबक
4
अमरनाथ, पहलगाँव, काश्मीर
गला
महामाया
त्रिसंध्येश्वर
5
ज्वाला जी, कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश
जीभ
सिधिदा (अंबिका)
उन्मत्त भैरव
6
जालंधर, पंजाब में छावनी स्टेशन निकट देवी तलाब
बांया वक्ष
त्रिपुरमालिनी
भीषण
7
अम्बाजी मंदिर, गुजरात
हृदय
अम्बाजी
बटुक भैरव
8
गुजयेश्वरी मंदिर, नेपाल, निकट पशुपतिनाथ मंदिर
दोनों घुटने
महाशिरा
कपाली
9
मानस, कैलाश पर्वत, मानसरोवर, तिब्ब्त के निकट एक पाषाण शिला
दायां हाथ
दाक्षायनी
अमर
10
बिराज, उत्कल, उड़ीसा
नाभि
विमला
जगन्नाथ
11
गंडकी नदी के तट पर, पोखरा, नेपाल में मुक्तिनाथ मंदिर
मस्तक
गंडकी चंडी
चक्रपाणि
12
बाहुल, अजेय नदी तट, केतुग्राम, कटुआ, वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल से 8 कि.मी.
बायां हाथ
देवी बाहुला
भीरुक
13
उज्जनि, गुस्कुर स्टेशन से वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल 16 कि.मी.
दायीं कलाई
मंगल चंद्रिका
कपिलांबर
14
माताबाढ़ी पर्वत शिखर, निकट राधाकिशोरपुर गाँव, उदरपुर, त्रिपुरा
दायां पैर
त्रिपुर सुंदरी
त्रिपुरेश
15
छत्राल, चंद्रनाथ पर्वत शिखर, निकट सीताकुण्ड स्टेशन, चिट्टागौंग जिला, बांग्लादेश
दांयी भुजा
भवानी
चंद्रशेखर
16
त्रिस्रोत, सालबाढ़ी गाँव, बोडा मंडल, जलपाइगुड़ी जिला, पश्चिम बंगाल
बायां पैर
भ्रामरी
अंबर
17
कामगिरि, कामाख्या, नीलांचल पर्वत, गुवाहाटी, असम
योनि
कामाख्या
उमानंद
18
जुगाड़्या, खीरग्राम, वर्धमान जिला, पश्चिम बंगाल
दायें पैर का बड़ा अंगूठा
जुगाड्या
क्षीर खंडक
19
कालीपीठ, कालीघाट, कोलकाता
दायें पैर का अंगूठा
कालिका
नकुलीश
20
प्रयाग, संगम, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
हाथ की अंगुली
ललिता
भव
21
जयंती, कालाजोर भोरभोग गांव, खासी पर्वत, जयंतिया परगना, सिल्हैट जिला, बांग्लादेश
बायीं जंघा
जयंती
क्रमादीश्वर
22
किरीट, किरीटकोण ग्राम, लालबाग कोर्ट रोड स्टेशन, मुर्शीदाबाद जिला, पश्चिम बंगाल से 3 कि.मी. दूर
मुकुट
विमला
सांवर्त
23
मणिकर्णिका घाट, काशी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मणिकर्णिका
विशालाक्षी एवं मणिकर्णी
काल भैरव
24
कन्याश्रम, भद्रकाली मंदिर, कुमारी मंदिर, तमिल नाडु
पीठ
श्रवणी
निमिष
25
कुरुक्षेत्र, हरियाणा
एड़ी
सावित्री
स्थनु
26
मणिबंध, गायत्री पर्वत, निकट पुष्कर, अजमेर, राजस्थान
दो पहुंचियां
गायत्री
सर्वानंद
27
श्री शैल, जैनपुर गाँव, 3 कि.मी. उत्तर-पूर्व सिल्हैट टाउन, बांग्लादेश
गला
महालक्ष्मी
शंभरानंद
28
कांची, कोपई नदी तट पर, 4 कि.मी. उत्तर-पूर्व बोलापुर स्टेशन, बीरभुम जिला, पश्चिम बंगाल
अस्थि
देवगर्भ
रुरु
29
कमलाधव, शोन नदी तट पर एक गुफा में, अमरकंटक, मध्य प्रदेश
बायां नितंब
काली
असितांग
30
शोन्देश, अमरकंटक, नर्मदा के उद्गम पर, मध्य प्रदेश
दायां नितंब
नर्मदा
भद्रसेन
31
रामगिरि, चित्रकूट, झांसी-माणिकपुर रेलवे लाइन पर, उत्तर प्रदेश
दायां वक्ष
शिवानी
चंदा
32
वृंदावन, भूतेश्वर महादेव मंदिर, निकट मथुरा, उत्तर प्रदेश
केश गुच्छ/
चूड़ामणि
उमा
भूतेश
33
शुचि, शुचितीर्थम शिव मंदिर, 11 कि.मी. कन्याकुमारी-तिरुवनंतपुरम मार्ग, तमिल नाडु
ऊपरी दाड़
नारायणी
संहार
34
पंचसागर, अज्ञात
निचला दाड़
वाराही
महारुद्र
35
करतोयतत, भवानीपुर गांव, 28 कि.मी. शेरपुर से, बागुरा स्टेशन, बांग्लादेश
बायां पायल
अर्पण
वामन
36
श्री पर्वत, लद्दाख, कश्मीर, अन्य मान्यता: श्रीशैलम, कुर्नूल जिला आंध्र प्रदेश
दायां पायल
श्री सुंदरी
सुंदरानंद
37
विभाष, तामलुक, पूर्व मेदिनीपुर जिला, पश्चिम बंगाल
बायीं एड़ी
कपालिनी (भीमरूप)
शर्वानंद
38
प्रभास, 4 कि.मी. वेरावल स्टेशन, निकट सोमनाथ मंदिर, जूनागढ़ जिला, गुजरात
आमाशय
चंद्रभागा
वक्रतुंड
39
भैरवपर्वत, भैरव पर्वत, क्षिप्रा नदी तट, उज्जयिनी, मध्य प्रदेश
ऊपरी ओष्ठ
अवंति
लंबकर्ण
40
जनस्थान, गोदावरी नदी घाटी, नासिक, महाराष्ट्र
ठोड़ी
भ्रामरी
विकृताक्ष
41
सर्वशैल/गोदावरीतीर, कोटिलिंगेश्वर मंदिर, गोदावरी नदी तीरे, राजमहेंद्री, आंध्र प्रदेश
गाल
राकिनी/
विश्वेश्वरी
वत्सनाभ/
दंडपाणि
42
बिरात, निकट भरतपुर, राजस्थान
बायें पैर की अंगुली
अंबिका
अमृतेश्वर
43
रत्नावली, रत्नाकर नदी तीरे, खानाकुल-कृष्णानगर, हुगली जिला पश्चिम बंगाल
दायां स्कंध
कुमारी
शिवा
44
मिथिला, जनकपुर रेलवे स्टेशन के निकट, भारत-नेपाल सीमा पर
बायां स्कंध
उमा
महोदर
45
नलहाटी, नलहाटि स्टेशन के निकट, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल
पैर की हड्डी
कलिका देवी
योगेश
46
कर्नाट, अज्ञात
दोनों कान
जयदुर्गा
अभिरु
47
वक्रेश्वर, पापहर नदी तीरे, 7 कि.मी. दुबराजपुर स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल
भ्रूमध्य
महिषमर्दिनी
वक्रनाथ
48
यशोर, ईश्वरीपुर, खुलना जिला, बांग्लादेश
हाथ एवं पैर
यशोरेश्वरी
चंदा
49
अट्टहास, 2 कि.मी. लाभपुर स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल
ओष्ठ
फुल्लरा
विश्वेश
50
नंदीपुर, चारदीवारी में बरगद वृक्ष, सैंथिया रेलवे स्टेशन, बीरभूम जिला, पश्चिम बंगाल
गले का हार
नंदिनी
नंदिकेश्वर
51
लंका, स्थान अज्ञात, (एक मतानुसार, मंदिर ट्रिंकोमाली में है, पर पुर्तगली बमबारी में ध्वस्त हो चुका है। एक स्तंभ शेष है। यह प्रसिद्ध त्रिकोणेश्वर मंदिर के निकट है)
पायल
इंद्रक्षी
राक्षसेश्वर

 इस पुरातन स्थान को फिर से खोजने का श्रेय जाता है कनफ़ड़ योगियों

इस पुरातन स्थान को फिर से खोजने का श्रेय जाता है कनफ़ड़ योगियों को
जिस हिंगलाज मंदिर में आज भी जाना मुश्किल है वहीं कई सौ साल पहले कान में कुंडल पहनने वाले ये योगी जाया करते थे
इस कठिन यात्रा के दौरान कई योगियों की मौत हो जाती थी जिनका पता तक किसी को नहीं चल पाता था
कहा जाता है कि इन्हीं कनफ़ड़ योगियों के भक्ति के तरीके और इस्लामी मान्यताओं के मिलने से सूफ़ी परंपरा शुरू हुईसिंधी साहित्य का इतिहास लिखने वाले प्रोफ़ेसर एल एच अजवाणी कहते हैं, “ईरान से आ रहे इस्लाम और भारत से भक्ति-वेदांत के संगम से पैदा हुई सूफ़ी परंपरा जो सिंधी साहित्य का एक अहम हिस्सा है
कुछ धार्मिक जानकारों का मानना है कि रामायण में बताया गया है कि भगवान श्रीराम हिंगलाज के मंदिर में गए थेमान्यता है कि उनके अलावा गुरु गोरखनाथ, गुरु नानक देव और कई सूफ़ी संत भी इस मंदिर में पूजा अर्चना कर चुके हैं
कराची से वंदर, ओथल और अगोर तक की 235 किलोमीटर की लंबी यात्रा के दौरान जंगल भी बदलते मंजरों की तरह साथ-साथ चलता रहता था हैं हिंगलाज के पहाड़ी सिलसिले तक पहुँचते-पहुँचते प्रकृति के चार विशालकाय दृश्यों को एक जगह होते देखा जा सकता हैंयहाँ जंगल, पहाड़, नदी और समुद्र साथ-साथ मौजूद हैंप्रकृति के इतने रंग कहीं और कम ही देखने को मिलते हैं
 यहाँ की कुल आबादी व निवासी:
मगर आपके ख़याल में यहाँ की आबादी कितनी होगी? अगर आप को आश्चर्य न हो तो यहाँ की कुल संख्या सैकड़े के आंकड़े से ज़्यादा नहीं हैपहले यहाँ केवल कफमन और जानू रहा करते थेलच्छन दास और जान मोहम्मद अंसारी लेग़ारी को लसबेला की हिंदूसभा दो-दो हज़ार रुपए प्रति माह देती हैलच्छन का संबंध थरपारकर से है जबकि जानू हिंगलाज से आधे घंटे पैदल के फ़ासले पर हिंगोल नदी के किनारे की एक बस्ती में रहता हैकमू अभी इस स्थान का निवासी बना है कमू सिंध के शहर उमरकोट का रहने वाला हैइसके माँ-बाप बचपन में ही गुज़र गए थेभाई ने किसी बात पर पिटाई कर दी तो वह घर छोड़ कर कराची में एक हिंदू सेठ के यहाँ नौकरी करने लगायहाँ पर इसकी उम्र बीस वर्ष हो गई, उसने सेठ से पैसे मांगे तो उसे सिर्फ पंद्रह रुपए मिले और उसने कराची से हिंगलाज तक तीन सौ मील का सफ़र पैदल चलते और अनेक लोगों से लिफ्ट लेकर तय कियाकमू ने कहा कि मेरी ज़िंदगी सफल हो गई हैमैं बहुत शांति से हूँ, मैं माता के चरणों में आ गया हूँअब मैं अपना जीवन यहीं बिताउंगाहिंदूसभा ने यात्रियों के खाने के लिए जो दान यहाँ रख छोड़ा है इसमें से लच्छन, जानू और कमू भी अपना पेट भरते हैं

 गुरु नानक और शाह अब्दुल बिठाई यहाँ हाज़िरी दे चुके हैं – 

यहां माता सती कोटटरी रूप में जबकि भगवान भोलेनाथ भीमलोचन भैरव रूप में प्रतिष्ठित हैं. माता हिंगलाज मंदिर परिसर में श्रीगणेश, कालिका माता की प्रतिमा के अलावा ब्रह्मकुंड और तीरकुंड आदि प्रसिद्ध तीर्थ हैं.
माता हिंगलाज मंदिर में पूजा-उपासना का बड़ा महत्व है. कहा जाता है कि इस प्रसिद्ध मंदिर में माता की पूजा करने को गुरु गोरखनाथ, गुरु नानक देव, दादा मखान जैसे महान आध्यात्मिक संत आ चुके हैं. आस्थावान भक्तों में मान्यता है कि जो यहां श्रद्धा और भक्तिपूर्वक माता की आराधना करता है, वह इस लोक में सारे सुख को भोगकर परमलोक में स्थान प्राप्त करता है.
कहा जाता है कि हिंगलाज माता के मंदिर में गुरु नानक और शाह अब्दुल बिठाई हाज़िरी दे चुके हैं
लच्छन दास का कहना है कि हिंगलाज माता ने यहाँ पर गुरू नानक और शाह लतीफ का दिया दूध पिया था
हिंगलाज माता के स्थान पर पहुंचने के लिए पक्की सीढियाँ बनाई गई हैं
यहाँ हिंगलाज शिव मंडली का बक्सा रखा गया है जहाँ लोग रक़म डालते हैं, यहाँ अबीर भी है जिसे पुजारी माथे पर लगाते हैं
माता के पटों के नीचे,प्रसाद को रख़ा जाता है, जिसे सिर्फ महिलाएँ ही देख सकती हैं. और फिर पटों से उन्हें ढक देती हैं   
पाकिस्तान के राज्य बलोचिस्तान में हिंदुओं के बहुत से धार्मिक स्थान मौजूद हैं जिनमें माता हिंगलाज देवी सिद्ध पीठ प्रमुख हैं। जब कभी हिंदू धर्म विरोधी शक्तियों के द्वारा इस मंदिर को नुक्सान पहुंचाने की कोशिश की जाती है तो वह माता की शक्ति के आगे टिक नहीं पाते और मंदिर का कुछ भी नहीं बिगड़ता। माता हिंगलाज देवी साक्षात मां दुर्गा भवानी हैं। इस आदि शक्ति की पूजा हिंदुओं द्वारा तो की ही जाती है इन्हें मुसलमान भी काफी सम्मान देते हैं।
सूफी शायर अब्दुल लतीफ शाह ने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए थे और अपनी पुस्तक मंजूम पैराएमें माता हिंगलाज देवी की यात्रा का विस्तृत उल्लेख किया -
सिंध के प्रसिद्ध सूफी शायर अब्दुल लतीफ शाह ने हिंगलाज देवी की यात्रा करके उन्हें अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किए थे। जब सिंधी मुल्तानों ने उनसे पूछा कि वह हिंगलाज देवी की यात्रा के लिए क्यों गए तो उन्होंने कहा-
गर यह चाहे तो बने जोगी
छोड़ हिरसी वाका की दुनिया को
नजारा करना हो तो बंद करो आंखें
सफर ङ्क्षहगलाज है दरपेश जोगी।
उन्होंने अपनी पुस्तक मंजूम पैराएमें माता हिंगलाज देवी की यात्रा का विस्तृत उल्लेख किया है। बलोचिस्तान के प्रधानमंत्री स्वयं एक शिष्ट मंडल के साथ इस पीठ की यात्रा के लिए गए थे।
आसाराम नामक स्थान अब भी यहां मौजूद है,जहां भगवान परशुराम के पिता महर्षि जमदग्रि ने यहां घोर तप किया था – 

माता हिंगलाज देवी मंदिर एक प्राचीन मंदिर है। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम के पिता महर्षि जमदग्रि ने यहां घोर तप किया था। उनके नाम पर आसाराम नामक स्थान अब भी यहां मौजूद है जो भगवान परशुराम के नाम से जाना जाता है

गोरखनाथ का चश्मा(पानी का झरना)
मंदिर के पास ही गुरु गोरखनाथ का पानी का चश्मा (पानी का झरना) बहाता है। कहा जाता है कि 
माता हिंगलाज देवी यहां सुबह स्नान करने आती हैं। हिंगलाज मंदिर में दाखिल होने के लिए 
पत्थर की सीढिय़ां चढऩी पड़ती हैं। यात्री छत से लटकी घंटी बजाकर माता का गुणगान करते हैं। मंदिर में सबसे पहले श्री गणेश के दर्शन होते हैं जो सिद्धि देते हैं। सामने की ओर माता हिंगलाज देवी की प्रतिमा हैं। यहां माता सती कोटटरी रूप में जबकि भगवान भोलेनाथ भीमलोचन भैरव रूप में प्रतिष्ठित हैं। माता हिंगलाज मंदिर परिसर में श्रीगणेश, कालिका माता की प्रतिमा के अलावा ब्रह्मकुंड और तीरकुंड आदि प्रसिद्ध तीर्थ हैं।
राजा हिंगोल के नाम से जुड़ कर माता हिंगलाज देवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ 
त्रेता युग में हिंगोल और सुन्दर नाम के दो भाई थे। जो बहुत ही कुर थे।उनका अत्याचार को समाप्त करने के लिए सभी ने प्राथना की तो श्री गणेश ने युध्ध में सुंदर को मार डाला।सुन्दर के मरने से हिंगोल उग्र हो गया और बदला लेने की कसम खाई। उसने कई वर्षो तक तपस्या की उसे वरदान मागा की उसकी मुत्यु जहा धुप (प्रकाश) ना आये वहा के सीवा कही नहीं हो। फिर से उसने आतंग जारी रखा। बाद में माँ काली ने एक अंधेर गुफा में उसका वध किया। हिंगोल को मारने की वजह से माँ का नाम हिंगलाज पड़ा। स्थानीय निवासियों के अनुसार राजा हिंगोल ने जब अपनी प्रजा को काफी तंग किया तो माता इस पर नाराज हो गईं। जब राजा हिंगोल मुसीबतों से तंग आ गया तो माता हिंगलाज ने दर्शन दिए और कहा कि वर मांगो। राजा ने कहा कि माता मुझे वर दीजिए कि आपका नाम मेरे नाम के साथ लिया जाए ताकि मैं पापों से छुटकारा पा सकूं। माता ने आशीर्वाद दिया कि ऐसा ही होगा। तब से प्राचीन देवी मंदिर राजा हिंगोल के नाम से जुड़ कर माता हिंगलाज देवी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। माता हिंगलाज देवी रिद्धि-सिद्धि देने वाली हैं।

ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति हेतु माता हिंगुला की शरण में आए थे राम-


कहते हैं कि,लंका विजय के बाद जब प्रभु श्रीराम ने एक यज्ञ का आयोजन किया और उससे पूर्व प्रथा अनुसार कबूतरों को दाने फेंके तो उन्होंने वे दाने नहीं चुगे। ऋषियों ने रामचन्द्र जी को बताया कि ब्राह्म हत्या के पाप से जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक आपके हाथ से कबूतर दाने नहीं लेंगे और इसके लिए आपको हिंगलाज में यज्ञ करना होगा। पश्चात् मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने वैसे ही किया भगवान राम फिर हिंगलाज आए जहां उन्होंने यज्ञ किया और गुफा के गर्भगृह से निकले। इसके बाद ज्वार के दाने हिंगोल नदी में अर्पित किए। वे दाने ठूमरा बनकर उभरे और उसके बाद रामचन्द्र जी को ब्राह्म हत्या के पाप से मुक्ति मिली। ये दाने आज भी यात्री इकट्ठा करके लाते हैं और मानते हैं कि इन्हें पहनना या घर में रखना शुभ होता है। आज भी ये दाने हिंगोल नदी मां के (अघोर नदी) से ही एकत्र किए जाते हैं। नदी के पानी में ढूंढ कर उसी में माला बनानी होती है क्योंकि बाहर निकालते ही वे पत्थर जैसे सख्त हो जाते हैं।  
पास ही में एक तिल कुंड भी है जहां काले तिल डालें तो सफेद हो जाते हैं। वहीं रामचन्द्र जी के पद चिन्ह भी देखने को मिलते हैं।
हिंगलाज माता के गुफा मंदिर के पास ही ऊपर पहाड़ी में एक दूसरी गुफा है जहां गुफा के बाहर विशाल शिलाखंड पर, रामचन्द्र जी द्वारा उकेरे गए चन्द्र और सूर्य के चित्र की (आकृतियां) अंकित हैं। कहते हैं कि ये आकृतियां राम ने यहां यज्ञ के पश्चात स्वयं अंकित किया था। । वहां भी पूजा होती है।
मां की गुफा के अंतिम पड़ाव पर पहुंच कर यात्री विश्राम करते हैं। अगले दिन सूर्योदय से पूर्व अघोर नदी में स्नान करके पूजन सामग्री लेकर दर्शन हेतु जाते हैं। नदी के पार पहाड़ी पर मां की गुफा है।
कहते हैं, जब 21 बार क्षत्रियों का संहार कर परशुराम आए, तब बचे राजागण माता हिंगुला की शरण में गए और अपनी रक्षा की याचना की। तब मां ने उन्हें ब्रह्मक्षत्रिय कहकर अभयदान दिया।

गुफा के पास ही माता हिंगलाज का महल है जो अतिमानवीय शिल्प-कौशल का नमूना है -
माता हिंगलाज का महल अतिमानवीय शिल्प-कौशल का नमूना है, जो यज्ञों द्वारा निर्मित माना  जाता है। कुछ सीढि़यां चढ़ने , गुफा का द्वार आता है तथा विशालकाय गुफा के अंतिम छोर पर वेदी पर दिया जलता रहता है। वहां पिंडी देखकर सहज ही वैष्णो देवी की स्मृति आ जाती है। गुफा के दो ओर दीवार बनाकर उसे एक संरक्षित रूप दे दिया गया है।
ऐसी मान्यता है कि 1-आसाम की कामाख्या, 2-तमिलनाडु की कन्याकुमारी, 3-कांची की कामाक्षी, 4-गुजरात की अंबाजी, 5-प्रयाग की ललिता, 6-विन्ध्याचल की विन्ध्यवासिनी, 7कांगड़ा की ज्वालामुखी, 8-वाराणसी की विशालाक्षी, 9-गया की मंगलादेवी, 10-बंगाल की सुंदरी, 11-नेपाल की गुह्येश्वरी और 12-मालवा की कालिका।
आद्याशक्ति हिंगुला ही इन द्वादश देवी रूपों में के रूप में सुशोभित हो रही हैं। 
जनश्रुति की मानें तो विदर्भ क्षेत्र के राजा नल माता हिंगलाज के परम भक्त थे।


हिंगलाज धाम अघोर पंथ के 10 तांत्रिक पीठ प्रमुख स्थलों में शामिल है-

हिंगलाज धाम अघोर पंथ (अघोर पंथ को शैव और शाक्त संप्रदाय की एक तांत्रिक शाखा माना गया है। अघोर पंथ की उत्पत्ति काल के बारे में कोई निश्चित प्रमाण नहीं है) के अघोर पंथियों के 10 तांत्रिक पीठ प्रमुख स्थलों में शामिल है।

 माँ हिंगलाज को क्षत्रियो की रक्षक और कुलदेवी माना जाता है-

जब परशुराम ने क्षत्रियो का नास कर रहे थे। तब दधिची मुनि ने रत्नसेन(सिंध के राजा) की सुरक्षा की लेकिन वह एक दिन आश्रम से बहार चले गये और परशुराम के हाथो मारे गए। अब परशुराम ने उनके बेटो को मारने के लिए गए । तो जो हिंगलाज मंत्र जयसेन को दिया था उससे माँ को प्राथना की और माँ ने प्रगट हो के परशुराम से क्षत्रियो की रक्षा की तभी से माँ हिंगलाज को क्षत्रियो की रक्षक और कुलदेवी माना जाता है।

8वीं शताब्दी में महाशक्ति हिंगलाज ने आवड देवी के रूप में द्वितीय अवतार धारण

देवी हिंगलाज माता सूर्य से भी अधिक तेजस्वी है और स्वेच्छा से अवतार धारण करती है। इस आदि शक्ति ने 8वीं शताब्दी में सिंध प्रान्त में मामड़  (मम्मट) के घर में आवड देवी के रूप में द्वितीय अवतार धारण किया था । ये सात बहिने थी-1-आवड, 2-गुलो,3- हुली,4- रेप्यली, 5-आछो, 6-चंचिक और 7-लध्वी। ये सब परम सुन्दरियां थी। कहते है कि इनकी सुन्दरता पर सिंध का यवन बादशाह हमीर सुमरा मुग्ध था। इसी कारण उसने अपने विवाह का प्रस्ताव भेजा पर इनके पिता के मना करने पर, बादशाह ने इनके पिता को कैद कर लिया। यह देखकर छ: देवियाँ सिंध से तेमडा पर्वत पर आ गईं। एक बहिन आवड देवी काठियावाड़ के दक्षिण पर्वतीय प्रदेश में 'तांतणियादरा' नामक नाले के ऊपर अपना स्थान बनाकर रहने लगी। यह आवड देवी भावनगर कि कुलदेवी मानी जाती हैं, ओर समस्त काठियावाड़ में भक्ति भाव से इसकी पूजा होती है। जब आवड देवी ने तेमडा पर्वत को अपना निवास स्थान बनाया तब इनके दर्शनाथ अनेक चारणों का आवागमन, इनके स्थान कि और निरंतर  होने लगा और इनके दर्शनाथ हेतु लोग समय पाकर यही राजस्थान में ही बस गए। आवड देवी ने तेमडा नाम के राक्षस को मारा था, अत: इन्हे तेमडेजी भी कहते है। आवड जी का मुख्य स्थान जैसलमेर से 20 मील दूर एक पहाडी पर बना है।
माँ हिंगलाज का आवड़ माता के में अवतार
मामडि़या नाम के एक चारण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की। एक बार माता ने स्वप्न में आकर उनकी इच्छा पूछी तो चारण ने कहा कि आप मेरे यहाँ जन्म लें। माता कि कृपा से चारण के यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया। उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया। सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा की।माड़ प्रदेश में आवड़ माता की कृपा से भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया। राजा तणुराव भाटी ने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भेंट किया।
आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए विक्रम संवत 828 ईस्वी में, तनोट में अपनी
स्थापना खुद की थी-
विक्रम संवत 828 ईस्वी में आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ अपनी स्थापना की। विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने तणुराव के पौत्र सिद्ध देवराज, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों, राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर कहा कि आप सभी लोग सुख शांति से आनंदपूर्वक अपना जीवन बिता रहे हैं अत: हमारे अवतार लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। इतना कहकर सभी बहनों ने पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं।

15वीं शताब्दी में महाशक्ति हिंगलाज ने श्री करणीजी के रूप में अवतार ग्रहण किया
15वीं शताब्दी में राजस्थान अनेक छोटे छोटे राज्यों में विभक्त था। जागीरदारों में परस्पर बड़ी खींचतान थी और एक दूसरे को रियासतो में लुट खसोट करते थे, जनता में त्राहि त्राहि मची हुई थी। इस कष्ट के निवारणार्थ ही महाशक्ति हिंगलाज ने सुआप गाँव के चारण मेहाजी की धर्मपत्नी देवलदेवी के गर्भ से श्री करणीजी के रूप में अवतार ग्रहण किया।
आसोज मास उज्जवल पक्ष सातम शुक्रवार।
चौदह सौ चम्मालवे करणी लियो अवतार॥

पेपसिंह राठौड़ तोगावास के द्वारा
इती

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