भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के लक्ष्य भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अनेक देवी देवताओं की पूजा का विधान है जिनमें माँ दुर्गा शक्तिकी उपासना प्रमुख हैं। माँ दुर्गा शक्ति की उपासना को उतना ही प्राचीन माना जाता है , जितना शिववांङ्मय में सर्वप्राचीन साहित्य अपौरुषेय वेद को। यही कारण है कि देवी कहती हैं- 'मैं रुद्रों एवं वसुओं के रूप में विचरण करती हूं।

माँ दुर्गा शक्ति की उपासना से जीव का कल्याण होता है। माँ दुर्गा शक्ति सभी जीवों की रक्षा करने वाली है। सृष्‍टि का संहार और पालन करने की अपार शक्ति उनके पास है। माँ अपने भक्तों के लिए सदैव भक्तों ने हर प्रकार की पूजा और विधान से मां दुर्गा को प्रसन्न करने के जतन किए। लेकिन अगर

आप व्यस्तताओं के चलते ‍विधिवत आराधना ना कर सकें तो मात्र 108 नाम के जाप करें

दुर्गा जी के 108 नाम

महारानी जग कल्याणी तेरी वाहन कमाल है शेर की सवारी माँ तुम्हारी बे मिसाल है

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ॠषिः, अनुष्टुप

छन्दः, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवताः,

सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः ।

1-ॐज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥

2 - दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥

3 - सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।शरण्ये त्र्यंम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ३ ॥ 4 - शरणागतदीनार्तपरित्राणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ४ ॥

5 - सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तु ते ॥ ५ ॥

6 - रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां

7 - त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्र्यन्ति ॥ ६ ॥सर्वबाधाप्रश्मनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि ।एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥

देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

1-सती 2-वैष्णवी 3-चामुंडा 4-साध्वी 5-वाराही 6-भवानी 7-भवप्रीता 8-लक्ष्मी 9-भवमोचनी 10-पुरूषाकृति 11-आर्या 12-विमला 13-दुर्गा 14-उत्कर्षिणी 15-जया 16-ज्ञाना 17-आद्या 18-शूलधारिणी 19-बुद्धिदा 20-पिनाकधारिणी 21-क्रिया 22-त्रिनेत्रा 23-नित्या 24-चंद्रघंटा 25-सर्ववाहनवाहना 26-बहुला 27-चित्रा 28-निशुम्भशुम्भहननी 29-मन: 30-महिषासुरमर्दिनि 31-शक्ति 32-बहुलप्रेमा 33-महातपा 34-मधुर्कटभहंत्री 35-अहंकारा 36-चण्डमुण्डविनाशिनि 37-चित्तरूपा 38-सर्वअसुरविनाशिनि 39-चिता 40-सर्वदानघातिनी 41-चिति 42-सर्वशास्त्रमयी 43-सर्वमंत्रमयी44-सत्ता 45-सर्वअस्त्रधारिणी46-सत्यानंदस्वरुपिणी 47-अनेकशस्त्रहस्ता48-अनन्ता 49-अनेकास्त्रधारिणी 50-भाविनि 51-कुमारी 52-भाव्या 53-एककन्या 54-भव्या 55-कैशोरी 56-अभव्या 57-युवति58-सदागति 59-यति: 60-शाँभवि 61-अप्रौढ़ा 62-देव माता 63-प्रौढा़ 64-चिंता 65-वृद्धमाता 66-रत्नप्रिया 67-बलप्रदा 68-सर्वविद्या 69-महोदरी70-दक्षकन्या 71-मुक्तकेशी 72-दक्षयज्ञविनाशिनी 73-घोररूपा74-अपर्णा 75-महाबला76-अनेकवर्णा 77-अग्निज्वाला 78-पाटला 79-रुद्रमुखी80-पाटलावती81-कालरात्रि 82-पट्टाम्बरपरिधाना 83-तपस्विनी 84-कलमंजिररंजिनी 85-नारायणी86-अमेय विक्रमा 87-भद्रकाली88-क्रूरा 89-विष्णुमाया 90-सुंदरी 91-जलोदरी 92-सुरासुंदरी 93-शिवदूती 94-वनदुर्गा 95-कराली 96मांतंगी 97-अनंता 98-मतंगमुनिपूजिता 99-परमेश्वरी 100-ब्राह्मी 101-कात्यायनी 102-माहेश्वरी 103-सावित्री 104-ऎंद्री 105-प्रत्यक्षा 106-कौमारी 107-ब्रह्मवादिनी 108-बुद्धिबुद्ध

इससे भी माता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती है। भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। माँ जगत् की प्राणाधार हैं और अपने भक्तों की रक्षा के लिए आश्चर्यजनक प्रमाण प्रकट किया करती हैं।

भक्त इसलिए करते हैं ताकि उनका जीवन सफल हो सके माँ दुर्गा शक्ति अपने भक्तों की सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं और इनकी कृपा से समस्त पाप और इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, अत:भक्तों के कष्ट का निवारण ये शीघ्र कर देती हैं । माँ दुर्गा शक्ति के अवतार पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। देश के प्रत्येक क्षेत्र में माँ दुर्गा शक्ति की पूजा की अलग परम्परा है। सभी भक्त अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा और उपासना करते है। परंतु इस युग में भगवान शिव और माँ दुर्गा शक्ति के अवतार को सबसे ज़्यादा पूजा जाता है।

इस ब्लॉग के माध्यम से हिन्दू धर्म को सम्‍पूर्ण विश्‍व में जन-जन तक पहुचाना चाहता हूँ और इसमें आपका साथ मिल जाये तो और बहुत ख़ुशी होगी।

यह ब्लॉग श्रद्धालु भक्तों की जानकारी तथा उनके मार्गदर्शन के ध्येय हेतु अर्पित एक पूर्णतया अव्यावसायिक ब्लॉग वेबसाइट है।

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धर्मप्रेमी दर्शन आपकी सेवा में हाजिर है सभी धर्म प्रेमियोँ को मेरा यानि पेपसिह राठौङ तोगावास कि तरफ से सादर प्रणाम।- पेपसिह राठौङ तोगावास

भारतीय संस्कृति में मानव जीवन के लक्ष्य भौतिक सुख तथा आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए अनेक देवी देवताओं की पूजा का विधान है जिनमें माँ दुर्गा शक्तिकी उपासना प्रमुख हैं। माँ दुर्गा शक्ति की उपासना को उतना ही प्राचीन माना जाता है , जितना शिववांङ्मय में सर्वप्राचीन साहित्य अपौरुषेय वेद को। यही कारण है कि देवी कहती हैं- 'मैं रुद्रों एवं वसुओं के रूप में विचरण करती हूं।

माँ दुर्गा शक्ति की उपासना से जीव का कल्याण होता है। माँ दुर्गा शक्ति सभी जीवों की रक्षा करने वाली है। सृष्‍टि का संहार और पालन करने की अपार शक्ति उनके पास है। माँ अपने भक्तों के लिए सदैव भक्तों ने हर प्रकार की पूजा और विधान से मां दुर्गा को प्रसन्न करने के जतन किए। लेकिन अगर

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दुर्गा जी के 108 नाम

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छन्दः, श्रीमहाकाली-महालक्ष्मी-महासरस्वत्यो देवताः,

सप्तश्लोकी दुर्गापाठे विनियोगः ।

1-ॐज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा। बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥ १ ॥

2 - दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।

दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता ॥ २ ॥

3 - सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।शरण्ये त्र्यंम्बके गौरि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ३ ॥ 4 - शरणागतदीनार्तपरित्राणे । सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोस्तु ते ॥ ४ ॥

5 - सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोस्तु ते ॥ ५ ॥

6 - रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् । त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां

7 - त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्र्यन्ति ॥ ६ ॥सर्वबाधाप्रश्मनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि ।एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ॥ ७ ॥

देहि सौभाग्यं आरोग्यं देहि में परमं सुखम्‌।

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

1-सती 2-वैष्णवी 3-चामुंडा 4-साध्वी 5-वाराही 6-भवानी 7-भवप्रीता 8-लक्ष्मी 9-भवमोचनी 10-पुरूषाकृति 11-आर्या 12-विमला 13-दुर्गा 14-उत्कर्षिणी 15-जया 16-ज्ञाना 17-आद्या 18-शूलधारिणी 19-बुद्धिदा 20-पिनाकधारिणी 21-क्रिया 22-त्रिनेत्रा 23-नित्या 24-चंद्रघंटा 25-सर्ववाहनवाहना 26-बहुला 27-चित्रा 28-निशुम्भशुम्भहननी 29-मन: 30-महिषासुरमर्दिनि 31-शक्ति 32-बहुलप्रेमा 33-महातपा 34-मधुर्कटभहंत्री 35-अहंकारा 36-चण्डमुण्डविनाशिनि 37-चित्तरूपा 38-सर्वअसुरविनाशिनि 39-चिता 40-सर्वदानघातिनी 41-चिति 42-सर्वशास्त्रमयी 43-सर्वमंत्रमयी44-सत्ता 45-सर्वअस्त्रधारिणी46-सत्यानंदस्वरुपिणी 47-अनेकशस्त्रहस्ता48-अनन्ता 49-अनेकास्त्रधारिणी 50-भाविनि 51-कुमारी 52-भाव्या 53-एककन्या 54-भव्या 55-कैशोरी 56-अभव्या 57-युवति58-सदागति 59-यति: 60-शाँभवि 61-अप्रौढ़ा 62-देव माता 63-प्रौढा़ 64-चिंता 65-वृद्धमाता 66-रत्नप्रिया 67-बलप्रदा 68-सर्वविद्या 69-महोदरी70-दक्षकन्या 71-मुक्तकेशी 72-दक्षयज्ञविनाशिनी 73-घोररूपा74-अपर्णा 75-महाबला76-अनेकवर्णा 77-अग्निज्वाला 78-पाटला 79-रुद्रमुखी80-पाटलावती81-कालरात्रि 82-पट्टाम्बरपरिधाना 83-तपस्विनी 84-कलमंजिररंजिनी 85-नारायणी86-अमेय विक्रमा 87-भद्रकाली88-क्रूरा 89-विष्णुमाया 90-सुंदरी 91-जलोदरी 92-सुरासुंदरी 93-शिवदूती 94-वनदुर्गा 95-कराली 96मांतंगी 97-अनंता 98-मतंगमुनिपूजिता 99-परमेश्वरी 100-ब्राह्मी 101-कात्यायनी 102-माहेश्वरी 103-सावित्री 104-ऎंद्री 105-प्रत्यक्षा 106-कौमारी 107-ब्रह्मवादिनी 108-बुद्धिबुद्ध

इससे भी माता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती है। भक्तों के रोगों और शोकों का नाश होता है तथा उसे आयु, यश, बल और आरोग्य प्राप्त होता है। माँ जगत् की प्राणाधार हैं और अपने भक्तों की रक्षा के लिए आश्चर्यजनक प्रमाण प्रकट किया करती हैं।

भक्त इसलिए करते हैं ताकि उनका जीवन सफल हो सके माँ दुर्गा शक्ति अपने भक्तों की सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं और इनकी कृपा से समस्त पाप और इनकी मुद्रा सदैव युद्ध के लिए अभिमुख रहने की होती हैं, अत:भक्तों के कष्ट का निवारण ये शीघ्र कर देती हैं । माँ दुर्गा शक्ति के अवतार पराक्रम की असंख्य गाथाएं प्रचलित हैं। देश के प्रत्येक क्षेत्र में माँ दुर्गा शक्ति की पूजा की अलग परम्परा है। सभी भक्त अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा और उपासना करते है। परंतु इस युग में भगवान शिव और माँ दुर्गा शक्ति के अवतार को सबसे ज़्यादा पूजा जाता है।

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Friday 16 January 2015

माँ श्री जीण माता



                 माँ श्री जीण माता
माँ श्री जीण

माँ श्री जीण माता कथा अनंत रहस्य का आवरण ओढ़े हुए सृष्टि का  एक काव्य है, कलम चलाने में वो शक्ति है, कि उस रहस्य को उजागर करे या फिर उसे और भी घना कर दे ! लिखना मेरे लिये सत्य के निकट आने का प्रयास है
सभी धर्म प्रेमियोँ को मेरा यानि पेपसिँह राठौङ की तरफ से नमस्कार!

या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता I    
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः II

निम्नांकित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमश: दिये गए हैं--
ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते।

जयंती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदंबे। आपको मेरा नमस्कार है
इस प्रकार अनेक रूपों में भगवती भक्तों की मनोकामना को पूर्ण करती हैं। मनुष्य ने उनकी आराधना अनेक प्रकार से करना चाहिए। भगवती को बारम्बार नमस्कार करना चाहिए

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम्।।


देवी को नमस्कार है, महादेवी को नमस्कार है। महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को मेरा प्रणाम है। हम लोग नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते हैं

भगवती देवी को कई रूपों में नमस्कार करना चाहिए। देवी सूक्तम् के अनुसार- भगवती विष्णु माया, श्रद्धा, चेतना बुद्धि, निद्रा, क्षुदा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षमा जाति, शांति, श्रद्धा कांति लक्ष्मी, वृत्ति, स्मृति, दया, तुष्टि माता ऐसे अनेक रूपों में जो प्राणियों में स्थित है, उस देवी को बार-बार नमस्कार है।

या देवी सर्वभुतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै।। नमस्तस्यै।। नमस्तस्यै नमो नम:।।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति.महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
नवदुर्गा
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।[1]

सनातन ग्रंथों के अनुसार नवदुर्गा  
1-जयंती     - पहले स्वरूप में मां शैलपुत्री
2-मंगला     - माँ ब्रह्मचारिणी
3-काली      - तीसरे स्वरूप में मां चंद्रघंटा
4-भद्रकाली    - कूष्माण्डा देवी के स्वरूप
5-कपालिनी   - स्कंदमाता
6-दुर्गा       - कात्यायनी
7-क्षमा      - महाकाली, कालरात्रि सातवीं शक्ति हैं
8-शिवा      - नवदुर्गा के महागौरी रूप को समर्पित है
9-धात्री       - महागौरी
सनातन ग्रंथों के अनुसार नवदुर्गा का उद्गम देव मुनियों की धोर तपस्या से प्रसन्न हो माँ आदिशक्ति पार्वती के इन रूपों में हुआ। यह नव दुर्गाओं के नाम से जाने जाते है।

इनमें प्रथम माँ जयंति (मां शैलपुत्री) का एक रूप सीकर जिले के (रेवती नगर) रेवसा के पास अरावली पर्वत माला में स्थित मंदिर में परम दर्शन करने को मिलता है।  
इस स्थल पर स्थित मंदिर में सतयुग से पूजा अर्चना होती माना गया है । एवं बड़े-बड़े राजा महाराजाओं ने अपने-अपने ढ़ंग से पूजा-अर्चना की। इसी स्थान पर भ्रामरी माता का भी मंदिर है। इस मंदिर में माँ कंकाली एवं दानवीर जयदेव का शीश भी रखा है।
जयदेव, महाराज जयचंद के सेनापति थे।
चौहान वंश में माँ जयंति को कुलदेवी के रूप में मानते आ रहें है।  
जीण माता का जन्म चुरू जिले के घांघू गांव हुआ था
जीण माता का जन्म अवतार चुरू जिले के घांघू गांव हुआ था- लोक काव्यों व गीतों व कथाओं में जीण का परिचय मिलता है। लोक कथाओं के अनुसार जीण माता का जन्म अवतार राजस्थान के चुरू जिले के घांघू गांव के अधिपति एक चौहान वंश के राजा घंघ के घर में हुआ था। जीण माता के एक बड़े भाई का नाम हर्ष था। माता जीण को शक्ति का अवतार माना गया है और हर्ष को भगवन शिव का अवतार माना गया है।

प्राचीन काल में, जो अब चूरू जिले के पास है। राजस्थान में घांघू नाम की विरासत को राजा घांघू सिंह ने वि० सं० 150 के लगभग बसाया था। घांघू सिंह प्रजापालक व दयालु थे। परन्तु वे निःसन्तान थे।
एक बार राजा घंघरान शिकार खेलने जंगल गए । राजा मृग का पीछा करते हुए अरावली पर्वतमाला के घने जंगलों को पार कर पहाड़ियों के मध्य लौहगिरि तक (वर्तमान लोहार्गल) पहुंच गए। जहां मृग अदृश्य हो गया। राजा वहां वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा।     
राजा को वहां कुछ दूरी पर, एक मन्दिर दिखाई पड़ा। मन्दिर के पास एक पवित्र जल कुण्ड था। वो स्थान जयन्ती महाभ्ज्ञागा सिद्ध पीठ था। देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में छब्बीस, शिवचरित्र में इक्यावन, दुर्गा शप्तसती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। (52.)विराट- अंबिका विराट (अज्ञात स्थान) इसकी शक्ति है अंबिका और भैरव को अमृत कहते हैं।
इस स्थान का वर्णन प्राचीन ग्रन्थों में बहुत मिलता है। दुर्गा शप्तसती और तंत्रचूड़ामणि में भी इका वर्णन 52 शक्ति पीठों में है। पाण्डवों ने अज्ञातवास के दौरान कुछ समय यहाँ बिताया था।

वहाँ पर पवित्र जलकुण्ड के पास राजा ने, एक साधू को तपस्या करते हुए देखा। वहाँ पर कई प्रकार के झाड झंझाड उगे हुए थे। राजा ने उस जगह को अच्छी तरह साफ़ किया और तपस्या में लीन महात्मा जी की सेवा करने लगे।  

एक दिन जब महात्मा जी तपस्या से ध्यान मुक्त हुए। उन्होंने देखा की वहाँ पर अच्छी सफाई की हुई है, और एक व्यक्ति शिवलिंग धोने में व्यस्त है।

जब राजा ने महात्माजी को तपस्या से ध्यान मुक्त हुए देखा, उठकर आए और साधू के चरणों में प्रणाम कर अपना परिचय दिया। महात्माजी ने राजा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक पुत्र और पुत्री प्राप्ति का वरदान दिया।  

जब इस बात का पता देवताओं को लगा कि जयन्ती महाभ्ज्ञागा शक्ति पीठ के आसन पर बैठे हुए साधू ने राजा को संतान प्राप्ति का वरदान दिया है। जयन्ती महाभ्ज्ञाग शक्ति पीठ के स्थान से मिले वरदान से कोई साधारण संतान प्राप्त नहीं होती। इसलिए देवताओं ने सोचा कि राजा का विवाह किसी दैवीय शक्ति से हो जो दैवीय संतान को जन्म दे सके।

जब राजा शक्ति पीठ से, अपनी राजधानी वापस लौटने लगे तो इसी पर्वतमाला में स्थित शाकम्बरी पीठ पहुँच गए। निकट ही एक सरोवर था जिसमे स्नान करने के लिए  सुंदरियां आईं और वस्त्रा उतारकर उन्होंने सरोवर में प्रवेश किया।  
 
अप्सरानान करने के लिएसरोवर में प्रवेश
राजा ने उनके वस्त्रा उठा लिये और इसी शर्त पर लौटाए कि उन चारों में से किसी एक को राजा के साथ विवाह करना होगा। मजबूरन, सबसे छोटी ने विवाह की स्वीकृति दे दी। तब
राजा ने उसका परिचय पूछा। सुंदरि ने बताया कि मैं अप्सरा हूँ मैं यहाँ स्नान करने के लिए आती हूँ।  

जब अप्सरा ने कहा मैं आपसे विवाक एक वचन देने पर ही कर सकती हूँ कि आप जब भी मेरे महल में आओ तो पहले सूचना देकर फिर आना। अगर आपने वचन तोड दिया तो मैं वापस चली जाऊँगी। राजा ने अप्सरा को वचन दे दिया और राजधानी पहुँच कर राजा ने अप्सरा के साथ विधिवत विवाह कर लिया।

कुछ समयोपरान्त अप्सरा के गर्भ से पुत्र ने जन्म लिया। चारों ओर हषोल्लास ही दिखाई दे रहा था। इसलिए राजा ने पुत्र का नाम हर्ष रखा। हर्ष के बाद राजा के महल में एक कन्या ने जन्म लिया और राजा को मिले दोनों वरदान पूरे हो गए। राजा ने रानी से कन्या के नाम रखने के बारे में पूछा तो रानी ने कहा कि महाराज मैं और इस कन्या प्राप्ति का वरदान आपको एकान्त जगह में मिला है अतः इसका जीण रखेंगे। जीण का अर्थ है - एकान्त, शून्य, जंगल आदि। राजा को अपनी पहली रानी से एक पुत्र हर्ष” (हरकरण) तथा एक पुत्री जीण प्राप्ति हुई।

एक दिन राजा बिना किसी सूचना के रानी के महल में प्रवेश कर गए। राजा ने अन्दर जाकर देखा कि रानी शेर पर बैठी है और आस-पास बच्चे खेल रहे हैं। यह देखकर वो चकित हो गए। अप्सरा ने कहा महाराज आपने वचन तोड़ दिया है। इसलिए मैं आज वापिस जा रही हूँ। इतना कहकर अप्सरा आलोप हो गई।


राजा बहुत दुखी हुए। उसके बाद दूसरा विवाह कर लिया
राजा को अपनी दूसरी नई रानी से कन्हराज, चंदराज व इंदराज पुत्र हुये।  
राजा कुछ समय पश्चात्‌ बहुत बीमार पड गए और अपनी मृत्यु को समीप देखते हुए
ज्येष्ठ पुत्रा होने के नाते हालांकि हर्ष ही राज्य का उत्तराधिकारी था। लेकिन नई रानी के रूप में आसक्त राजा ने उससे उत्पन्न पुत्रा, कन्हराज को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।

हर्ष की छोटी ही उम्र में शादी कर दी और हर्ष द्वारा अपने पिता को जीण को सदा खुश रखने की सान्त्वना देने के बाद हर्ष के पिता का देहान्त हो गया।  
भवत: इन्हीं उपेक्षाओं ने हर्ष के मन में वैराग्य को जन्म दे दिया।  

उधर कुछ समय पश्चात्‌, हर्ष की पत्नी आने के बाद भी हर्ष-जीण का प्यार कम नहीं हुआ। जीण भाई-भाभी सभी की लाडली बनी हुई थी। लेकिन विधि के विधानों को कोई नहीं टाल सकता। देवताओं ने सोचा जिस उद्देश्य से जीण व हर्ष ने धरती पर अवतार लिया था वो उद्देश्य पूरा हो। अब जीण व हर्ष के प्रेम को देखकर जीण की भाभी जलने लगी ।

राजकुमारी जीण बाई को संदेह मात्र हुआ की उनके भाई हर्ष नाथ उनसे अधिक उनकी भाभी को प्रेम करने लगे हैं। एक दिन जीण और उसकी भाभी (भावज) सरोवर पर पानी लेने गई जहाँ दोनों के मध्य किसी बात को लेकर तकरार हो गई। उनके साथ गांव की अन्य सखी सहेलियां भी थी। अन्ततः दोनों के मध्य यह शर्त रही कि दोनों पानी के मटके घर ले चलते है जिसका मटका हर्ष पहले उतारेगा उसके प्रति ही हर्ष का अधिक स्नेह समझा जायेगा। हर्ष इस विवाद से अनभिज्ञ था।

दोनों पानी लेकर जब घर आई तो दैव योग से हर्ष ने पहले मटका अपनी पत्नी का उतार दिया। जीण सर पर घड़ा लिए खड़ी रही। शर्त हार जाने पर इससे जीण को आत्मग्लानि व हार्दिक ठेस लगी। वही अनबन दोनों भाई ओर बहन के प्रेम में जहर घोल दिया। भाई के प्रेम में अभाव जान कर जीण के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ।

जीण की भाभी जीण को समय मिलने पर ताने कसने लगी। एक दिन हर्ष बाहर गया हुआ थे पीछे से उसकी पत्नी व जीण के बीच कहा सुनी हो गई। हर्ष की पत्नी बोली तू मेरी सौत बनी बैठी है। यह वाक्य सुनकर जीण रोने लगी जिसे वह माँ समान मानती थी वही भाभी किस तरह की बातें कर रही है। जीण के मन में वैराग्य की भावना घर कर गई। जीण अपने पिता की विरासत को छोड कर जंगल में निकल गई।
जीण माता धाम  "काजल शिखर"
इस पहाड़ के एक शिखर को "काजल शिखर" के नाम से जाना जाता है

देवताओं ने जीण को उसी स्थान पर जाने के लिए बाध्य कर दिया जिस स्थान पर राजा को संतान प्राप्ति का वरदान मिला था, क्योंकि जयन्ती शक्ति पीठ ही जीण की कुल देवी थी। (जीण ने घर से निकलने के बाद पीछे मुड़कर ही नहीं देखा और अरावली पर्वतमाला के इस पहाड़ के एक शिखर जिसे "काजल शिखर" के नाम से जाना जाता है पहुँच कर तपस्या करने लगी।)

जब हर्ष को कर्तव्य बोध हुआ तो वो जीण को मनाकर वापस लाने के लिए उसके पीछे शक्ति पीठ पर आ पहुँचा। हर्ष अपनी भूल स्वीकार कर क्षमा चाही और वापस साथ चलने का आग्रह किया जिसे जीण ने स्वीकार नहीं किया। और अपने प्रण पर अटल थी। जीण के दृढ निश्चय से प्रेरित हो हर्षनाथ का मन बहुत उदास हो गया और घर नहीं लौटा और उन्हें ज्ञान हुआ कि इस धरती पर अवतार लेने का उद्देश्य अब पूरा करना है।

अन्त में दृढ़ संकल्प के साथ जीण ने जयन्ती माता के मन्दिर में पहुँचकर काजल शिखर पर बैठकर भगवती आदि शक्ति (नव-दुर्गा) की घोर आराधना की। (वे भी वहां से कुछ दूर जाकर दूसरे पहाड़ की चोटी पर भैरव की साधना में तल्लीन हो गया। पहाड़ की यह चोटी बाद में हर्ष नाथ पहाड़ के नाम से प्रसिद्ध हुई।) दोनों ने घर से निकलकर तपस्या की और आज दोनों लोकदेव रूप में जन-जन में पूज्य हैं।

हर्ष नाथ पहाड़

तब भगवती ने वरदान दिया कि आज से मैं इस स्थान पर जीण नाम से पूजा ग्रहण करूंगी। उधर हर्षनाथ ने हर्ष शिखर पर बैठकर भैरूजी की तपस्या कर स्वयं भैरू की मूर्ति में विलीन होकर हर्षनाथ भैरव बन गए। जीण आजीवन ब्रह्मचारिणी रही और तपस्या के बल पर देवी बन गई। इस प्रकार जीण और हर्ष अपनी कठोर साधना व तप के बल पर देवत्व प्राप्त कर लिया। आज भी दोनों भाई बहनों के नाम को श्रद्धा और विश्वास से पूजा जा रहा है।

इनकी ख्याति दूर-दूर तक फ़ैल हैं और आज लाखों श्रद्धालु इनकी पूजा अर्चना करने देश के कोने कोने से पहुँचते हैं। यह बड वों की बहियों, खयातों, लोकमतों, शिलालेखों, वंशावासियों और पुजारियों से सुनी बातें हैं जो प्रक्षिप्त सिद्ध होती हैं। पुराने तथ्यों एवं आज के तथ्यों में समय उपरान्त तोड -मोड हो जाना स्वभाविक है, पर जो कुछ भी हो जीण माता एक विखयात देवी शक्ति है, जो सदियों से लेकर आज तक लगातार आराध्य देवी के रूप में पूजी जाती हैं। दोनों भाई बहन के बीच हुई बातचीत का सुलभ वर्णन आज भी राजस्थान के लोक गीतों में मिलता है। हर्षदेव व जीण माता का अनुपम आख्यान भाई बहिन के दैवीय प्रेम का अनुपम उदाहरण है। लौकिक मोह किस प्रकार पारलौकिक स्वरुप धारण कर पूजनीय हो गया, यह कथा प्रदर्शित करती है।
जीण माता
कलयुग में शक्ति का अवतार माता जीण भवानी का भव्य धाम भारत- राजस्थान- जिला सीकर के सुरम्य अरावली पहाड़ियों (रेवासा पहाडियों) में स्थित है। यह क्षेत्र शेखावाटी के नाम से जाना जाता है। सीकर ज़िले के उत्तर में झुन्झुनू, उत्तर-पश्चिम में चूरू, दक्षिण-पश्चिम में नागौर और दक्षिण-पूर्व में जयपुर जिले की सीमाएँ लगती हैं। माता जीण भवानी का भव्य धाम जयपुर से से लगभग 115 किलोमीटर दूर, सीकर से लगभग 15 कि.मी. दूर दक्षिण में जयपुर बीकानेर राजमार्ग पर गोरियां रेलवे स्टेशन से 15 कि.मी. पश्चिम व दक्षिण के मध्य खोस नामक गाँव के पास स्थित है।
राष्ट्रिये राजमार्ग 11 से ये लगभग 10 किलोमीटर की दुरी पर 17 कि.मी. लम्बा यह मार्ग पहले अत्यंत दुर्गम व रेतीला था किन्तु विकास के दौर में आज यह काफ़ी सुगम हो गया है।

  
माता का निज मंदिर दक्षिण मुखी है परन्तु मंदिर का प्रवेश द्वार पूर्व में है।
जीणमाता का यह प्राचीन मंदिर, शक्ति की देवी जयन्तीमाता को समर्पित मंदिर है। जीणमाता का पूर्ण और वास्तविक नाम जयन्तीमाता है। माता दुर्गा की अवतार है। यह चौहानों की कुल देवी है। जीण माँ भगवती की यह बहुत प्राचीन शक्ति पीठ है, जिसका निर्माणकार्य बड़ा सुंदर और सुद्रढ़ है। मंदिर की दीवारों पर तांत्रिको व वाममार्गियों की मूर्तियाँ लगी है जिससे यह भी सिद्ध होता है कि उक्त सिद्धांत के मतावलंबियों का इस मंदिर पर कभी अधिकार रहा है या उनकी यह साधना स्थली रही है।

मंदिर के देवायतन का द्वार सभा मंडप में पश्चिम की और है और यहाँ जीण माँ भगवती की अष्टभुजी आदमकद मूर्ति प्रतिष्ठापित है। सभा मंडप पहाड़ के नीचे मंदिर में ही एक और मंदिर है जिसे गुफा कहा जाता है जहाँ जगदेव पंवार का पीतल का सिर और कंकाली माता की मूर्ति है। मंदिर के पश्चिम में महात्मा का तप स्थान है जो धुणा के नाम से प्रसिद्ध है। जीण माता मंदिर के पहाड़ की श्रंखला में ही रेवासा व प्रसिद्ध हर्षनाथ पर्वत है।
ये भव्य धाम चरों तरफ़ से ऊँची ऊँची पहाडियों से घिरा हुआ है। बरसात या सावन के महीने में इन पहाडो की छटा देखाने लायक़ होती है।  



वर्तमान में हर्षनाथ नामक ग्राम, हर्षगिरि पहाड़ी की तलहटी में बसा हुआ है और सीकर से प्रायः आठ मील दक्षिण-पूर्व में हैं। हर्षगिरि ग्राम के पास हर्षगिरि नामक पहाड़ी है, जो 3,000 फुट ऊँची है और इस पर लगभग 1000 वर्ष से अधिक प्राचीन मंदिरों के खण्डहर हैं।

इन मंदिरों में एक काले पत्थर पर उत्कीर्ण लेख प्राप्त हुआ है, जो शिवस्तुति से प्रारम्भ होता है और जो पौराणिक कथा के रूप में लिखा गया है लेख में हर्षगिरि और मन्दिर का वर्णन है और इसमें कहा गया है कि मन्दिर के निर्माण का कार्य आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी, सोमवार 1030 विक्रम सम्वत् (956 ई.) को प्रारम्भ होकर विग्रहराज चौहान के समय में 1030 विक्रम सम्वत (973 ई.) को पूरा हुआ था।

यह लेख संस्कृत में है और इसे रामचन्द्र नामक कवि ने लेखबद्ध किया था। मंदिर के भग्नावशेषों में अनेक सुंदर कलापूर्ण मूर्तियाँ तथा स्तंभ आदि प्राप्त हुए हैं, जिनमें से अधिकांश सीकर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं।

चाहमान शासकों के कुल देवता शिव हर्षनाथ का यह मंदिर हर्षगिरी पर स्थित हैं तथा महामेरु शैली में निर्मित हैं। विक्रम संवत 1030 (973 ई.) के एक अभिलेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण चाहमन शासक विग्रहराज प्रथम के शासनकाल मे एक शैव संत भावरक्त द्वारा करवाया गया था।

कहते है की माता का मन्दिर कम से कम 1000 साल पुराना है। जीणमाता मंदिर घने जंगल से घिरा हुआ है। यह मंदिर तीन छोटी पहाडों के संगम में 20 - 25 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। जीण माता मंदिर के ऊपर 17 कि.मी. सीधी चढ़ाई बाले हर्ष पर्वत पर स्थित 10वी शताब्दी का यह मंदिर, अनेक लोक श्रुतियों का जन्म दाता है। ओरंगजेब द्वारा किये गए विध्वंस के चिन्ह आज भी दूर दूर तक बिखरे हुए हैं। प्रस्तर पर उकेरे अनुपम पौराणिक आख्यान, अदभुत पुरातात्विक कलाकृतियाँ - जिसमें ना जाने कितने कलाकारों का अमूल्य परिश्रम लगा होगा - आज धूल धूसरित खंडित जहां तहां बिखरे पड़े हैं। पुराने शिव मंदिर के स्थान पर नवीन मंदिर निर्माण हो चुका है, किन्तु खंडित ध्वंसावशेष बता रहे हैं कि पुराने मंदिर से उसकी कोई तुलना नहीं हो सकती। संगमरमर का विशाल शिव लिंग तथा नंदी प्रतिमा आकर्षक है। पराशर ब्राह्मण वंश परंपरा से उनकी सेवा पूजा में नियुक्त हैं। पास ही हर्षनाथ का मंदिर है जहां चामुंडा देवी तथा भैरव नाथ के साथ उनकी दिव्य प्रतिमाये स्थित हैं। सेकड़ों के तादाद में काले मुंह के लंगूर मंदिर पर चढ़ाए जाने वाले प्रसाद के पहले अधिकारी हैं।
मंदिर का सभा मंडप 24 प्रस्तर स्तम्भों से निर्मित है, जो कि प्राचीन हस्तशिल्प वास्तुकला की आकर्षक मिसाल पेश करते है। गर्भ ग्रह में जीणमाता की आदमकद अष्ठ भुजाओं वाली मूर्ति प्रतिस्थापित है। मां अपनी सवारी सिंह पर बैठकर  महिषासुर का वध कर रही हैं तथा समस्त अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित है। गौर रक्त वर्ण वाली मां तन पर रक्ताम्बर धारण किये हुये है।
भव्य विशाल मस्तक पर छत्र मुकुट, कानों में कुण्डल, गले में स्वर्णिम रत्न जडि़त हार कांठला आदि सुन्दर आभूषणों से विभूषित देवी के दर्शन की छठा निराली है।

मंदिर के पश्चिम छोर पर पुजारियों के पूर्वज माला बाबा की अति प्राचीन तपोस्थली व पुजारियों के गुरु का स्थान स्थित है। दक्षिण में एक शिव मंदिर है, जिसे सीकर के राजा ने बनवाया था।  पास में जीण कुण्ड नामक पवित्र कुण्ड तालाब व कपिलधारा नाम के झरने स्थित है।
इस तीर्थ के पूर्वी भाग में स्यालू सागर नामक खारे पानी की झील है। यहां विशाल मात्रा में नमक व मछली उत्पादन हो रहा है। यहां प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु अपनी श्रद्धा व विश्वास का संदेशा लेकर के जीण नगरी पहुंचे हैं।
जीण माता की पूजा अर्चना पाराशर गौत्रीय ब्राह्मण व सांभरिखाप के राजपूत करते हैं, जो वर्षों से निर्मित कठोर परंपराओं व आध्यात्मिक आदर्शों को जीवित रखे हुये हैं। सभी बाधाओं के बावजूद भी जीणधाम एक अनूठा धार्मिक व ऐतिहासिक  स्थल है। तभी तो कहतें हैं कि जीने न देखी जीण, जग में आयर के किण अर्थात जिसने जीणमाता के  दर्शन नही किए उसने संसार में आकर क्या किया।
यह मंदिर गुप्त काल में भी विध्यमान था। नवमी शताब्दी में चौहान राजा गुवक ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। 
यह स्थान संतों के लिए तपस्या स्थल बन चुका है, यहाँ प्राचीन काल से एक मठ्ठ भी है| ऋषि कपिल ने भी यहाँ तपस्या की थी, और कपिल धाम को सिर्फ ऋषि कपिल भी कहते है| यहाँ कई संतों कि समाधियाँ और मठ्ठ है| जीण धाम, महा माया जयन्ती माता का सिद्ध पीठ है| सर्वप्रथम मन्दिर का निर्माण हिन्दु पंचांग के अनुसार विक्रम सम्वत ९८५ भादव बदी अष्टमी को हुआ| साल में दो बार चैत्र और आश्विन के माह नवरात्री के मौके पर मनाये जाने वाले त्यौहार में लाखों श्रद्धालु शामिल होते है और बड़ी धूम-धाम से पर्व मनाते है|

जीण माता मंदिर में नवरात्रि मेला
जीण माता मंदिर में हर वर्ष चैत्र सुदी एकम् से नवमी (नवरात्रा में) व आसोज सुदी एकम् से नवमी में दो विशाल मेले लगते है जिनमे देश भर से लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते है। भक्तों की मण्डली द्विवार्षिक नवरात्रि समारोह (हर साल चैत्र और अश्विन/आसोज माह में शुक्ल पक्ष की नवरात्रि मेले के समय) के दौरान एक बहुत रंगीन नज़र हो जाती है।
जीणमाता मेले के अवसर पर राजस्थान के बाह्य अंचल से भी अनेक लोग आते हैं। मन्दिर के बाहर, मेले के अवसर पर सपेरे मस्त होकर बीन बजाते हैं। राजस्थान के सुदुर अंचल से आये बालकों का झडूला (केश मुण्डाना) उत्तरवाते हैं रात्रि जागरण करते हैं और अपनी सामर्थ्यानुसार सवामणी, छत्रचंवर, झारी, नौबत, कलश, आदि भेंट करते हैं। मन्दिर में बारह मास अखण्डदीप जलता रहता है।
श्री जीण धाम की मर्यादा व पूजा विधि
॥ जय जीण भवानी की जय॥
जीण माता मन्दिर स्थित पुरी सम्प्रदाय की गद्‌दी (धुणा) की पूजा पाठ केवल पुरी सम्प्रदाय के साधुओं द्वारा ही किया जाता है।
जो पुजारी जीण माता की पूजा करते हैं, वो पाराशर ब्राह्मण हैं।
जीण माता मन्दिर पुजारियों के लगभग 100 परिवार हैं जिनका बारी-बारी से पूजा का नम्बर आता है।
पुजारियों का उपन्यन संस्कार होने के बाद विधि विधान से ही पूजा के लिये तैयार किया जाता है।
पूजा समय के दौरान पुजारी को पूर्ण ब्रह्मचार्य का पालन करना होता है व उसका घर जाना पूर्णतया निषेध होता है।
जीण माता मन्दिर में चढ़ी हुई वस्तु (कपड़ो, जेवर) का प्रयोग पुजारियों की बहन-बेटियां ही कर सकती हैं। उनकी पत्नियों के लिए निषेध होता है।

जीण भवानी की सुबह 4 बजे मंगला आरती होती है। आठ बजे शृंगार के बाद आरती होती है व सायं सात बजे आरती होती है। दोनों आरतियों के बाद भोग (चावल) का वितरण होता है।
माता के मन्दिर में प्रत्येक दिन आरती समयानुसार होती है। चन्द्रग्रहण और सूर्य ग्रहण के समय भी आरती अपने समय पर होती है।
हर महीने शुक्ल पक्ष की अष्टमी को विशेष आरती व प्रसाद का वितरण होता है।
माता के मन्दिर के गर्भ गृह के द्वार (दरवाज़े) 24 घंटे खुले रहते हैं। केवल शृंगार के समय पर्दा लगाया जाता है।
हर वर्ष शरद पूर्णिमा को मन्दिर में विशेष उत्सव मनाया जाता है, जिसमें पुजारियों की बारी बदल जाती है।
हर वर्ष भाद्रपक्ष महीने में शुक्ल पक्ष में श्री मद्‌देवी भागवत का पाठ व महायज्ञ होता है।
जीण धाम स्थित पहाड़ो व नदी की बजरी आदि का व्यावसायिक प्रयोग होता है।
मंदिर में देवी शराब चढाई जा सकती है लेकिन पशुबलि वर्जित है।
दोहा
श्री गुरु पद सुमरण करी,गोंरी नंदन ध्याय |
वरनों माता जीण यश , चरणों शीश नवाय ||
झांकी की अद्भुत छवि , शोभा कही न जय |
जो नित सुमरे माय को , कष्ट दूर हो जाय ||
चोपाई
जय जय जय श्री जीण भवानी |दुष्ट दलन सनतन मन मानी ||
कैसी अनुपम छवि महतारी | लख निशिदिन जाऊ बलहारी ||
राजपूत घर जनम तुम्हारा | जीण नाम माँ का अति प्यारा ||
हर्षा नाम मातु का भाई | प्यार बहन से है अधिकाई ||
मनसा पाप भाभी को आया | बहन से ये नहीं छुपे छुपाया ||
तज के घर चल दीन्ही फ़ौरन |निज भाभी से करके अनबन ||
नियत नार की हर्षा लख कर |रोकन चला बहन को बढ़ कर ||
रुक जा रुक जा बहन हमारी | घर चल सुन ले अरज हमारी ||
अब भेया में घर नहीं जाती |तज दी घर अरु सखा संघाती ||
इतना कह कर चली भवानी | शुची सुमुखी अरु चतुर सयानी ||
पर्वत पर चढ़कर हुँकारी | पर्वत खंड हुए अति भारी ||
भक्तो ने माँ का वर पाया |वही महत एक भवन बनाया||
रत्न जडित माँ का सिंघासन |करे कौन कवी जिसका वर्णन||
मस्तक बिंदिया दम दम दमके|कानन कुंडल चम् चम् चमके||
गल में मॉल सोहे मोतियन की| नक् में बेसर है सुवरण की||
हिंगलाज की रहने वाली|कलकत्ते में तुम ही काली ||
नगर कोट की तुम ही ज्वाला|मात चण्डिका तुम हो बाला||
वैष्णवी माँ मनसा तू ही |अन्नपुर्णा जगदम्बा तू ही||
दुष्टो के घर घालक तुम ही |भक्तो की प्रतिपालक तुम ही||
महिषासुर की मर्दन हारी|शुम्भ -निशुम्भ की गर्दन तारी||
चंड मुंड की तू संहारी |रक्त बीज मारे महतारी||
मुग़ल बादशाह बल नहीं जाना |मंदिर तोड्न को मन माना ||
पर्वत पर चढ़ कर तू आई|कहे पुजारी सुन मेरी माई||
इसको माँ अभिमान है भारी|ये नहीं जाने शक्ति तुम्हारी||
माँ ने भवर विलक्षण छोड़े|भागे हाथी भागे घोड़े||
हार गया माँ से अभिमानी |गिर चरणों में कीर्ति बखानी||
गुनाह बख्श मेरी खता बख्श दे |दया दिखा मेरे प्राण बख्श दे||
तेल सवा मन तुरंत चढाया |दीप जला तम नाश कराया||
माँ की शक्ति अपरम्पारा | वो समझे सो माँ का प्यारा||
शुद्ध हदय से माँ का पूजन |करे उसे माँ देती दर्शन||
दुःख दरिद्र को पल में टारी|सुख सम्पति भर दे महतारी||
जो मनसा ले तोंकू जाये |खाली लोट कभी न आये ||
बाँझ दुखी और बूढ़ा बाला| सब पर कृपा करे माँ ज्वाला||
पीकर सूरा रहे मतवाली|हर जन की करती रखवाली||
सूरा प्रेम से करता अर्पण |उसको माँ करती आलिंगन||
चेत्र अश्विन कितना प्यारा|पर्व पड़े माँ का अति भरा||
दूर दूर से यात्री आवे |मनवांछित फल माँ से पावे||
जात जडूला कर गठ जोड़ा| माँ के भवन से रिश्ता जोड़ा ||
करे कढाई भोग लगावे |माँ चरणों में शीश शुकावे ||
जीण भवानी सिंह वाहिनी | सभी समय माँ रहो दाहिनी ||
नित चालीसा जो पढ़े , दुःख दरिद्र मिट जाय |
भ्रष्ट हुए प्राणी भले , सुधर सुपथ चल आय ||
ग्राम जीण सीकर जिला, मंदिर बना विशाल |
भवरा की रानी तूँ ही ,जीण भवानी काल ||
काजल शिखर विराजती, ज्योति जलत दिन रात |
भय भंजन करती सदा ,जीण भवानी मात ||
दोहा
जय दुर्गा जय अम्बिका , जग जननी गिरिराय |
दया करो हे जगदम्बे , विनय शीश नवाय ||
राजस्थानी लोक साहित्य में जीणमाता
राजस्थानी लोक साहित्य में जीणमाता का गीत सबसे लम्बा है। इस गीत को कनफ़टे जोगी केसरिया कपड़े पहन कर, माथे पर सिन्दूर लगाकर, डमरू एवं सारंगी पर गाते हैं। यह गीत करुण रस से ओतप्रोत है। मेले के अवसर पर ग्राम बधुएँ गाती हैं :-
माता रे थान में, चिरविट नाड़ो बीड़लो.
सुपरा के बीड़ल म्हारी, जीण माता बस रही.
माताँ रे थान में चावल रो बीहलो,
सेर घुडक, नार री असवारी.
म्हारी जीण माता बस रही.
जे कोई जीणमाताजी नै ध्यावै, सदा सुखपावै.
मनसा होवै पूरी, म्हारी जीणमाता री आसीस सूं.
लोकगीत में जीणमाता का अत्यन्त मर्म स्पर्शी प्रसंग मिलता है, जो भाई बहिन के पवित्र प्रेम का प्रतीक बना हुआ है। यह गीत राजस्थानी लोक साहित्य में अपना विशेष महत्त्व रखता है। साहित्यिक दृष्टि से भी इस गीत को अत्यन्त उच्च कोटि का माना गया है। अनेक विद्वान् इसे राजस्थान का सर्वश्रेष्ठ गीत मानते हैं। इस गीत में जीण माता के आत्म सम्मान व बहिन के प्रति भ्रातृप्रेम का जीवित आदर्श देखा जा सकता है।
जीण माता और औरंगज़ेब
एक जनश्रुति के अनुसार देवी जीण माता ने सबसे बड़ा चमत्कार मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब को दिखाया था। बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के अभिलेखों में जीण माता के सम्बन्ध में यह विवरण उपलब्ध है कि दिल्ली के बादशाह औरंगज़ेब ने शेखावाटी के मंदिरों को तोड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी थी। यह सेना हर्ष पर्वत पर शिव व हर्षनाथ भैरव का मंदिर खंडित कर जीण मंदिर को खंडित करने आगे बढ़ी। उस समय हर्ष के मंदिर की पूजा गूजर लोग तथा जीणमाता के मंदिर की पूजा तिगाला जाट करते थे।
 
औरंगज़ेब ने हारकर जब हर्ष और जीणमाता के चरणों में शीश नवाया
कहते हैं कि हमले के तुरन्त बाद जीणमाता की मक्खियों (भंवरों) ने बादशाह की सेना पर हमला बोल दिया। मक्खियों ने बादशाह की सेना का पीछा दिल्ली तक किया और सेना को बहुत नुकसान पहुँचाया। मधुमखियों के दंशों से बेहाल पूरी सेना घोड़े आदि और मैदान छोड़कर भाग गई।
तब औरंगज़ेब ने हारकर जब हर्ष और जीणमाता के चरणों में शीश नवाया व क्षमा याचना की। तब जाकर कहीं उसका पीछा छूटा।

माता की शक्ति को जानकर उसने वहां पे भंवरो की रानी के नाम से शुद्ध खालिस सोने की बनी मूर्ति भेंट की और मंदिर के लिये सवामण तेल और सवामण बाकला हर साल भेजने का वादा किया। औरंगज़ेब ने सवामन तेल का दीपक अखंड ज्योति के रूप में मंदिर में स्थापित किया और आज शताब्दियों के बाद भी वो अखंड ज्योत प्रज्वलित हो रही है। आज भी माता सभी दुखी लोगो के दुःख हरती है ओर उनको सुख देती है।
 
औरंगज़ेब नेभंवरो की रानी के नाम से शुद्ध खालिस सोने की बनी मूर्ति भेंट की
औरंगज़ेब को चमत्कार दिखाने के बाद जीण माता "भौरों की देवी" भी कही जाने लगी। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार औरंगज़ेब को कुष्ठ रोग हो गया था अतः उसने कुष्ठ निवारण हो जाने पर माँ जीण के मंदिर में एक स्वर्ण छत्र चढाना बोला था। जो आज भी मंदिर में विद्यमान है।

शेखावाटी के मंदिरों को खंडित करने के लिए मुग़ल सेनाएं कई बार आई जिसने खाटू श्याम, हर्षनाथ, खंडेला के मंदिर आदि खंडित किए। एक कवि ने इस पर यह दोहा रचा था :-
देवी सजगी डूंगरा , भैरव भाखर माय ।
खाटू हालो श्यामजी , पड्यो दडा-दड खाय ।।

मंदिर की प्राचीनता का इतिहास या जीण माता मंदिर का निर्माण काल-
जीणमाता के भाट हरफ़ूल तिगाला जाट को गाँव गोठडा तागालान की 18000 बीघा ज़मीन की जागीर बक्शी। इसलिए इस गाँव का नाम गोठडा तागालान कहलाता है। यह जागीर उनके पास 105 साल रही तत्पश्चात संवत 1837 में यह कासली के नवाब के साथ फतेहपुर के अधीन हुआ। बाद में यह जागीर शेखावतों के पास आई। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बुरडक गोत्र के आदि पुरुष नानकजी ने संवत 1351 (1294 AD) में बैसाख सुदी आखा तीज रविवार के दिन गोठडा गाँव बसाया था।

जीण माता के लिए तेल कई वर्षो तक दिल्ली से आता रहा फिर बाद में दिल्ली के बजाय जयपुर से आने लगा।
जयपुर महाराजा ने इस तेल को मासिक के बजाय वर्ष में दो बार नवरात्रों के समय भिजवाना आरम्भ कर दिया। और महाराजा मानसिंह के समय उनके गृह मंत्री राजा हरीसिंह अचरोल ने बाद में तेल के स्थान पर नगद 20 रु. 3 आने प्रतिमाह कर दिए। जो निरंतर प्राप्त होते रहे। (पहले शासन व्यवस्था करता था, आज भक्तो के द्वारा सुव्यवस्था है।)

मंदिर की प्राचीनता के सबल प्रमाण
कई इतिहासकार आठवीं सदी में मानते है। मंदिर में अलग-अलग आठ शिलालेख लगे है जो मंदिर की प्राचीनता के सबल प्रमाण है।
संवत 1029 यह महाराजा खेमराज की मृत्यु का सूचक है।
संवत 1132 जिसमे मोहिल के पुत्र हन्ड द्वारा मंदिर निर्माण का उल्लेख है।
संवत् 1162 विक्रम वर्ष 1162 का एक शिलालेख (1105 ई.), शेखावाटी में जीणमाता मंदिर सभामंदप की एक स्तंभ पर उत्कीर्ण है, कॉल मैं प्रिथ्विराजा परमभात्तारका महाराजधिराजा - परमेश्वर, जिससे उसकी महान शक्ति का एक शासक के रूप में स्वतंत्र स्थिति दिखा।
संवत 1196 महाराजा आर्णोराज के समय के दो शिलालेख।
संवत 1230 इसमें उदयराज के पुत्र अल्हण द्वारा सभा मंडप बनाने का उल्लेख है।
संवत 1382 जिसमे ठाकुर देयती के पुत्र श्री विच्छा द्वारा मंदिर के जीर्णोद्दार का उल्लेख है।
संवत 1520 में ठाकुर ईसरदास का उल्लेख है।
संवत 1535 को मंदिर के जीर्णोद्दार का उल्लेख है।
उपरोक्त शिलालेखों में सबसे पुराना शिलालेख संवत 1029 (972 AD) का है पर उसमे मंदिर के निर्माण का समय नहीं लिखा गया अतः यह मंदिर उससे भी अधिक प्राचीन है।


अभिलेखों में जीण माता के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक तथ्य
चौहान चन्द्रिका नामक पुस्तक में इस मंदिर का 9 वीं शताब्दी से पूर्व के आधार मिलते है।
बुरडक गोत्र के अभिलेखों में जीण माता  चौहान वंश से निकले बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के अभिलेखों में जीण माता के सम्बन्ध में कुछ ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं जो निम्नानुसार हैं :-
चौहान राजा रतनसेण के बिरमराव पुत्र हुए। बिरमराव ने अजमेर से ददरेवा आकर राज किया। संवत 1078 (1021 AD) में किला बनाया। इनके अधीन 384 गाँव थे। बिरमराव की शादी वीरभाण की बेटी जसमादेवी गढ़वाल के साथ हुई। इनसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए :-
1. सांवत सिंह - सांवत सिंह के पुत्र मेल सिंह, उनके पुत्र राजा धंध, उनके पुत्र इंदरचंद तथा उनके पुत्र हरकरण हुए। इनके पुत्र हर्ष तथा पुत्री जीण उत्पन्न हुयी। जीणमाता कुल देवी संवत 990 (933 AD) में प्रकट हुयी।
2. सबल सिंह - सबलसिंह के बेटे आलणसिंह और बालणसिंह हुए। सबलसिंह ने जैतारण का किला संवत 938 (881 AD) में आसोज बदी 10 को फ़तेह किया। इनके अधीन 240 गाँव थे।
3. अचल सिंह -
सबलसिंह के बेटे आलणसिंह के पुत्र राव बुरडकदेव, बाग़देव, तथा बिरमदेव पैदा हुए। आलणसिंह ने संवत 979 (922 AD) में मथुरा में मंदिर बनाया तथा सोने का छत्र चढ़ाया।
ददरेवा के राव बुरडकदेव के तीन बेटे समुद्रपाल, दरपाल तथा विजयपाल हुए।

राव बुरडकदेव (b. - d.1000 AD) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए। वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 AD) को वे जुझार हुए। इनकी पत्नी तेजल शेकवाल ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 AD) में सती हुई।

राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र निकला। राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल के 2 पुत्र नरपाल एवं कुसुमपाल हुए।

समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए। संवत 1067 (1010 AD) में इनकी पत्नी पुन्यानी साम्भर में सती हुई।
बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के उपरोक्त अभिलेखों की पुष्टि ऐतिहासिक तथ्यों से होती है।
मंदिर के पश्चिम में जीण वास नामक गांव है जहाँ इस मंदिर के पुजारी व बुनकर रहते है। यह गाँव बुरड़कों द्वारा बसाया गया था।
जीण माता मंदिर से कुछ ही दूर रलावता ग्राम के नजदीक खूड के गांव मोहनपुरा की सीमा में शेखावत वंश प्रवर्तक रावशेखा का स्मारक स्वरुप छतरी बनी हुई है। राव शेखा ने गौड़ क्षत्रियों के साथ युद्ध करते हुए यहीं शरीर त्याग कर वीरगति प्राप्त की थी।

इतिहासकारों की नजर से घांघू (चुरू) पुरातात्विक महत्व
दसवीं शताब्दी में बसा गांव घांघू ऐतिहासिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है।
एक हजार से भी अधिक साल पुराने इस गांव के सुनहरे अतीत पर यूं तो अनेक इतिहासकारों ने अपनी कलम चलाई है लेकिन इनमें कर्नल टॉड, बांकीदास, ठाकुर हरनामसिंह, नैणसी, डॉ दशरथ शर्मा, गोविंद अग्रवाल के नाम खासतौर पर शामिल है।
क्याम खां रासो के मुताबिक,
चाहुवान के चारों पुत्रों 1-मुनि, 2-अरिमुनि, 3-जैपाल और 4-मानिक
मानिक के कुल में सुप्रसिद्ध चौहान सम्राट पृथ्वीराज पैदा हुआ
जबकि मुनि के वंश में भोपालराय, कलहलंग के बाद घंघरान पैदा हुआ जिसने बाद में घांघू की स्थापना की।

गोगाजी व कायमखां- लोकदेव गोगाजी और क्यामखानी समाज के संस्थापक कायम खां भी घांघू से संबंधित हैं। घंघरान के ही वंश में आगे चलकर अमरा के पुत्रा जेवर के घर लोकदेवता गोगाजी का जन्म जेवर की तत्कालीन राजधानी ददरेवा में हुआ। बाद में गोगाजी ददरेवा के राजा बने। गोगाजी ने विदेशी आक्रांता महमूद गजनवी के खिलाफ लड़ते हुए अपने पुत्रों , संबंधियों और सैनिकों सहित वीर गति प्राप्त की।  

इसी चौहान वंश के राजा मोटेराव के समय ददरेवा पर फिरोज तुगलक का आक्रमण हुआ और उसने मोटेराय के चार पुत्रों में से तीन को जबरन मुसलमान बना लिया।

कायमखानी - मोटेराय के सबसे बड़े बेटे के नाम करमचंद था जिसका धर्म परिवर्तन पर कायम खां रखा गया और कायम खां के वंशज कायमखानी कहलाए।
ऐतिहासिक गढ़ और छतरी
हालांकि हजारों वर्षों पूर्व के सुनहरे अतीत के चिन्ह तो घांघू में कहीं मौजूद नजर नहीं आते लेकिन लगभग ३५० साल पहले बना ऐतिहासिक गढ और सुंदर दास जी की छतरी आज भी गांव में मौजूद है। गांव में जीणमाता, हनुमानजी, करणीमाता, कामाख्या देवी, गोगाजी, शीतला माता सहित ७-८ देवी देवताओं के मंदिर हैं।
पुरातात्विक महत्व
इसी काल के हर्ष, रैवासा और जीणमाता अपने पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व के लिए खासे प्रसिद्ध हैं। हर्षनाथ से मिली पुरातात्विक सामग्री इतिहासवेत्ताओं के लिए खासी महत्वपूर्ण है। हर्ष और जीणमाता गांव से तो घांघू एकदम सीधे-सीधे संबंधित
रैवासा- राजस्थान की मरुवृन्दावन सीकर नगरी के निकट अरावली पर्वत की श्रृंखला की तलहटी में अपनी भव्यता एवं ऐतिहासिकता को संजोये हुएश्री दिगम्बर हैन भव्योदय अतिशय क्षेत्र, रैवासा, विद्यामान हैं। इसी क्षेत्र में वीर निर्वाण संवत् 1674 में निर्मित भव्य जिनालय में भगवान आदिनाथ की प्रतिमा एवं नसियां जी में चन्द्रप्रभु भगवान की पद्मासन प्रतिमा विराजमान हैं, मुगल बादशाह औरंगजेब ने इस मन्दिर के बारें में सुना उसने उस मन्दिर को लूटने का एव्ं खण्डित करने का प्रयास किया लेकिन श्रावकों को ज्ञान होने पर श्रीजी को तलघर में विराजमान कर दिया। यहां रात्रि के समय देवतागण आते हैं। जिसकी नूपुरों की ध्वनि भी सुनाई दी। इसी प्रकार की एक ओर ऐतिहासिकता है।


विशेषता यह भी हैं कि मन्दिर में खम्बिं की गिनती कोई भी सही ढंग से नहीं कर पाया। यह भी चम्त्कार होने से अनगिनत खम्बें वाले मन्दिर के नाम से विख्यात हैं। एक अद्भुत अतिशत हुआ। चार बार शान्तिनाथ भगवान की पीतल की मूर्ति चोर ले गये लेकिन कुछ दिनों बाद वह प्रतिमा वापस आकर वेदी पर विराजमान हो गयी।
 By-पेपसिँह राठौङ

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