माँ शाकम्भरी देवी
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पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय
मां के नाम से प्रसिद्ध है |
“देवी भागवतम” हिंदू धर्म का एक पवित्र धार्मिक ग्रन्थ है। जो शाकम्बरी देवी की कथा का वर्णन
करता है ।
देश भर में मां शाकंभरी के
तीन शक्तिपीठ हैं-
पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय
मां के नाम से प्रसिद्ध है।
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर
के नाम से स्थित है और
तीसरा उत्तरप्रदेश में सहारनपुर
से 42 किलोमीटर
दूर कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर की
दूरी पर स्थित है।
राजा रूरू के पुत्र दैत्य दुर्गम
द्वारा हिमालय पर्वत पर ब्रह्मा जी तपस्या-
दुर्गम नाम का एक महान् दैत्य था।
उस दुष्टात्मा दानव के पिता राजा रूरू
थे। 'देवताओं का बल “वेद” है। वेदों के लुप्त हो जाने पर देवता भी नहीं
रहेंगे, इसमें कोई संशय नहीं है। अतः पहले वेदों को ही नष्ट
कर देना चाहिये'। यह सोचकर वह दैत्य तपस्या करने के विचार से
हिमालय पर्वत पर गया। मन में ब्रह्मा जी का ध्यान करके उसने आसन जमा लिया। वह केवल वायु पीकर रहता था। उसने
एक हजार वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की।
चारों वेदों के परम
अधिष्ठाता ब्रह्माजी द्वारा दैत्य दुर्गम को वर दान –
उसके तेज से देवताओं और दानवों सहित
सम्पूर्ण प्राणी सन्तप्त हो उठे। तब विकसित कमल के सामन सुन्दर मुख की शोभा वाले
चतुर्मुख भगवान ब्रह्मा प्रसन्नतापूर्वक हंस पर
बेडकर वर देने के लिये दुर्गम के सम्मुख प्रकट हो गये और बोले -
'तुम्हारा कल्याण हो ! तुम्हारे मन में जो वर पाने की इच्छा हो,
मांग लो। आज तुम्हारी तपस्या से सन्तुष्ट होकर मैं यहाँ आया हूँ।'
ब्रह्माजी के मुख से यह वाणी सुनकर दुर्गम ने कहा - सुरे,र ! मुझे सम्पूर्ण वेद प्रदान करने की कृपा कीजिये। साथ ही मुझे वह बल
दीजिये, जिससे मैं देवताओं को परास्त कर सकूँ।
दुर्गम की यह बात सुनकर चारों वेदों
के परम अधिष्ठाता ब्रह्माजी 'ऐसा
ही हो' कहते हुए सत्यलोक की ओर चले गये। ब्रह्माजी को समस्त
वेद विस्मृत हो गये।
दुर्गम के अत्याचार से धर्म
के क्षय ने गंभीर सूखे को जन्म दिया –
दुर्गम नामक एक दानव ने प्रचण्ड
तपस्या की और चारों वेदों को प्राप्त कर लिया, ऋषियों की सभी शक्तियां दुर्गम द्वारा शोषित कर ली गई तथा यह आशीर्वाद भी
प्राप्त कर लिया कि देवताओं को समर्पित समस्त पूजा उसे प्राप्त होनी चाहिये ।
जिससे कि वह अविनाशी हो जाये । शक्तिशाली दुर्गम ने लोगों पर अत्याचार करना आरम्भ
कर दिया और धर्म के क्षय ने गंभीर सूखे को जन्म दिया और सौ वर्षों तक कोई वर्षा
नहीं हुई ।
ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग भीषण
अनिष्टप्रद समय उपस्थित होने पर जगदम्बा की उपासना करने के हिमालय पर्वत पर गये-
इस प्रकार सारे संसार में घोर अनर्थ
उत्पन्न करने वाली अत्यन्त भयंकर स्थिति हो गयी। ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग भीषण अनिष्टप्रद समय
उपस्थित होने पर जगदम्बा की उपासना करने के हिमालय पर्वत पर गये, और अपने को सुरक्षित एवं बचाने के लिए हिमालय की कन्दराओं में छिप गए तथा
माता देवी को प्रकट करने के लिए कठोर तपस्या की । समाधि, ध्यान
और पूजा के द्वारा उन्होंने देवी की स्तुति की। वे निराहार रहते थे। उनका मन
एकमात्र भगवती में लगा था। वे बोले - 'सबके भीतर निवास करने
वाली देवेश्वरी ! तुम्हारी प्रेरणा के अनुसार ही यह दुष्ट दैत्यसब कुछ करता है।
तुम बारम्बार क्या देख रही हो ? तुम जैसा चाहो वैसा ही करने
में पूर्ण समर्थ हो। कल्याणी! जगदम्बिके प्रसन्न हो हम
तुम्हें प्रणाम करते हैं।''इस प्रकार ब्राह्मणों के
प्रार्थना करने पर भगवती पार्वती, जो 'भुवनेश्वरी'
एवं महेश्वरी' के नाम से विखयात हैं।,
 |
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर
के नाम से स्थित है |
माता देवी शाकम्बरी के नाम
से जानी गयीं –
ब्रह्मा, विष्णु आदि आदरणीय देवताओं के इस प्रकार स्तवन
एवं विविध द्रव्यों के पूजन करने पर भगवती जगदम्बा तुरन्त संतुष्ट हो गयीं। ऋषि, मुनि और ब्राह्मण लोग की समाधि,
ध्यान और पूजा के द्वारा उनके संताप के करुण क्रन्दन से विचलित होकर,
ईश्वरी- माता देवी-फल, सब्जी, जड़ी-बूटी, अनाज, दाल और पशुओं
के खाने योग्य कोमल एवं अनेक रस से सम्पन्न नवीन घास फूस लिए हुए प्रकट हुईं और अपने
हाथ से उन्हें खाने के लिये दिये।,शाक का तात्पर्य सब्जी
होता है, इस प्रकार माता देवी का नाम उसी दिन से ''शाकम्भरी'' पड गया।
सताक्षी के नाम से पुकारा
गया –
जगत् की रक्षा में तत्पर रहने वाली
करूण हृदया भगवती अपनी अनन्त आँखों से सहस्रों जलधारायें गिराने लगी। उनके नेत्रों
से निकले हुए जल के द्वारा नौ रात तक त्रिलोकी पर महान् वृष्टि होती रही।
वे अनगिनत आँखें भी रखती थीं। इसलिए
उन्हें सताक्षी के नाम से पुकारा गया । ऋषियों और लोगों की दुर्दशा को देख कर उनकी
अनगिनत आँखों से लगातार नौ दिन एवं रात्रि तक आँसू बहते रहे । यह (आँसू ) एक
नदी में परिवर्तित हो गए जिससे सूखे का समापन हो गया ।
शाकम्बरी देवी का दैत्य दुर्गम से युद्ध –
जगत में कोलाहल मच जाने पर दूत के
कहने पर दुर्गम नामक स्थान दैत्य स्थिति को समझ गया। उसने अपनी सेना सजायी और
अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर वह युद्ध के लिये चल पड़ा। उसके पास एक अक्षोहिणी
सेना थी। तदनन्तर देवताओं व महात्माओं को जब असुरों की सेना ने घेर लिया था तब करुणामयी
मां ने बचाने के लिए ,देवलोक के चारों ओर एक
दीवार खड़ी कर दी और स्वयं घेरे से बाहर आकर युद्ध के लिए डट गई तथा दानवों से
संसार को मुक्ति दिलाई।
तदनन्तर देवी और दैत्य-दोनों की लड़ाई
ठन गयी। धनुष की प्रचण्ड टंकार से दिशाएँ गूँज उठी। भगवती की माया से प्रेरित
शक्तियों ने दानवों की बहुत बड़ी सेना नष्ट कर दी। तब सेनाध्यक्ष दुर्गम
स्वयं शक्तियों के सामने उपस्थित होकर उनसे युद्ध करने लगा। संसार के ऋषि एवं
लोगों को बचाने के लिये, शाकम्बरी देवी ने दैत्य दुर्गम से युद्ध
किया।
अब भगवती जगदम्बा और दुर्गम दैत्य इन
दोनों में भीषण युद्ध होने लगा।
माँ शाकम्बरी देवी ने अपने शरीर से दस
शक्तियाँ उत्पन्न की थी । जिन्होंने युद्ध में देवी शाकम्बरी की सहायता की।
जगदम्बा के पाँच बाण दुर्गम की छाती
में जाकर घुस गये। फिर तो रूधिर वमन करता हुआ वह दैत्य भगवती परमेश्वरी के सामने
प्राणहीन होकर गिर पड़ा।
माँ शाकम्बरी देवी ने अंततः अपने भाले
से दैत्य दुर्गम को मार डाला ।
वेदों की सभी शक्तियां शाकम्बरी
देवी के शरीर में प्रवेश – तब वेदों का ज्ञान और ऋषियों की सभी शक्तियां जो दुर्गम
द्वारा शोषित कर ली गई थीं, दानव दुर्गम को मारने से सभी शक्तियां सूर्यों
के समान चमकदार सुनहरे प्रकाश में परिवर्तित हो गयीं और शाकम्बरी देवी के शरीर में
प्रवेश कर गयीं ।
माता देवी या ईश्वरी का नाम
दुर्गा हुआ –
देवी ने प्रसन्नतापूर्वक उस राक्षस से
वेदों को त्राण दिलाकर देवताओं को सौंप दिया। वे बोलीं कि मेरे इस उत्तम महात्म्य
का निरन्तर पाठ करना चाहिए। मैं उससे प्रसन्न होकर सदैव तुम्हारे समस्त संकट दूर
करती रहूँगी।
शाकम्बरी देवी ने सभी वेद और शक्तियां
देवताओं को वापस कर दिया। तब माता देवी या ईश्वरी का नाम “दुर्गा” हुआ क्योंकि
उन्होंने दानव दुर्गम को मारा था ।
शाकम्बरी नवरात्रि का उत्सव
–
पौष शुक्ल अष्टमी से आरम्भ होकर पौष
की पूर्णिमा को
समाप्त होता है ।
यह राजस्थान, मध्य प्रदेश, हिमांचल
प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में मनाया जाता है । भारत के इन
राज्यों के मन्दिरों में विशाल आयोजन सर्वोच्च माता की आराधना हेतु होता है जो
अपने बच्चों को भोजन उपलब्ध कराती है । सब देखते हुए माता (दुर्गा) जानतीं हैं कि
क्या और कब उनके बच्चों की आवश्यकता है । जब उनके बच्चे रोते हैं, वे अपने अनाज, दाल,सब्जी,
एवं फलों के उपहारों सहित दौड़ी चली आतीं हैं। यह उत्सव प्रक्रति
माता तथा सर्वोच्च माता की कृतज्ञता का एक आयोजन होता है ।
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तीसरा उत्तरप्रदेश में सहारनपुर
से 42 किलोमीटर
दूर कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर की
दूरी पर स्थित है |
देवगण बोले- परिवर्तनशील जगत की एकमात्र कारण भगवती परमेश्वरी! शाकम्भरी!
शतलोचने! तुम्ळें शतशः नमस्कार है। सम्पूर्ण उपनिषदों से प्रशंसित तथा दुर्गम नामक
दैत्य की संहारिणी एवं पंचकोश में रहने वाली कल्याण-स्वरूपिणी भगवती महेश्वर!
तुम्हें नमस्कार है।
हरी श्री
शाकम्भरी अम्बा जी की आरती कीजो ।
ऐसा अदभुत रुप हृदय धर लीजो,
शताक्षी दयालु की आरती कीजो ।।
तुम परिपूर्ण आदि भावानी माँ,
सब घट तुम आप बखानी माँ ।।
शाकम्भर अम्बाजी की आरती कीजो
तुम्ही हो शाकम्भर, तुम ही हो शताक्षी माँ
शिवमूर्ति माया प्रकाशी माँ, श्री शाकम्भर
नित जो नर नारी अम्बे आरती गावे माँ
इच्छा पूरण कीजो, शाकम्भर दर्शन पावे माँ,
श्री शाकम्भर ...
जो नर आरती पढे पढावे माँ
जो नर आरती सुने सुनावे माँ
बसे बैकुण्ड शाकम्भर दर्शन पावे, श्री
शाकम्भर....
वर्ष भर में चार
नवरात्रि मानी गई है, आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में शारदीय
नवरात्रि, चैत्र शुक्ल पक्ष में आने वाली चैत्र नवरात्रि,
तृतीय और चतुर्थ नवरात्रि माघ और आषाढ़ माह में मनाई जाती है।
पौष माह की शुक्ल पक्ष अष्टमी से पौष
पूर्णिमा का समय शाकम्भरी नवरात्री कहलाता है।
प्रत्येक वर्ष में दो मुख्य नवरात्री, चैत्र व शारदीय नवरात्री होते हैं।
जो चैत्र व आश्विन मास की प्रतिपदा से
नवमी तक होते हैं ।
इसके अलावा माघ व आषाढ़ मास मे दो
गुप्त नवरात्री भी प्रतिपदा से नवमी तक होते हैं।
परन्तु शाकम्भरी नवरात्रि को अष्टमी
से पूर्णिमा तक मनाते हैं।
तंत्र-मंत्र के साधकों को अपनी सिद्धि
के लिए यह नवरात्रि खास माना जाता है।
तंत्र-मंत्र के साधकों को अपनी सिद्धि
के लिए खास माने जाने वाली शाकंभरी नवरात्रि मनाई जाती है।
लड़कियों का विवाह जल्दी
कराती है यह देवी स्तुति
देवी दुर्गा की स्तुति केवल शक्ति के
लिए नहीं की जाती है। मां दुर्गा पार्वती के रूप में लड़कियों को अच्छा वर भी
दिलाती है और विवाह में आ रही बाधा को दूर भी करती है। कहा जाता है कि सीता और
रुक्मणि दोनों ने पार्वती का पूजन किया था और इससे ही उन्हें राम और कृष्ण जैसे
पति मिले। तुलसीदास ने रामचरितमानस में इसका उल्लेख भी किया है। सीता ने पार्वती
का पूजन किया था, स्तुति की थी। इसके
बाद ही उन्हें राम के दर्शन हुए थे। वही स्तुति रामचरितमानस में मिलती है। कई विद्वानों
ने इस स्तुति को सिद्ध माना है। अगर कुंवारी लड़की रोजाना नियम से पार्वती पूजन कर
इस स्तुति का पाठ करे तो उसे भी मनचाहा वर मिलता है।
स्तुति
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥
नहिं तब आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
अर्थ - हे श्रेष्ठ पर्वतों
के राजा हिमालय की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो,
हे महादेवजी के मुख रूपी चंद्रमा की ओर टकटकी लगाकर और छ: मुखवाले
स्वामी कार्तिकेयजी की माता! हे जगजननी! हे बिजली की-सी कांतियुत शरीर वाली! आपकी जय
हो। आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव
को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश
करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं।
हे भक्तों को मुंहमांगा वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी!
आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके
देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं। मेरे मनोरथ को
आप भली भांति जानती हैं योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं।
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माँ
शाकम्भरी देवी मन्दिर
ऐसी मान्यता है कि माँ शाकम्भरी मानव
के कल्याण के लिये धरती पर आयी थी।
मां शाकंभरी के तीन
शक्तिपीठों की, नौ देवियों में से एक हैं मां
शाकंभरी देवी।
मां शाकंभरी धन-धान्य का आशीर्वाद
देती हैं। इनकी अराधना से घर हमेशा शाक यानी अन्न के भंडार से भरा रहता है।
देश भर में मां शाकंभरी
के तीन शक्तिपीठ हैं।
पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय
मां के नाम से प्रसिद्ध है।
दूसरा स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर
के नाम से स्थित है और
तीसरा स्थान उत्तरप्रदेश के मेरठ के पास सहारनपुर में 40 किलोमीटर की दूर पर स्थित है।
1-पहला प्रमुख श्री शाकम्भरी माता मन्दिर, गाँव सकराय सीकर
(राजस्थान)
 |
सीकर
जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां |
पहला प्रमुख राजस्थान से सीकर जिले
में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां के नाम से प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि महाभारत
काल में पांडव अपने भाइयों व परिजनों का युद्ध में वध (गोत्र हत्या) के पाप से
मुक्ति पाने के लिए अरावली की पहाडिय़ों में रुके। युधिष्ठिर ने पूजा अर्चना के लिए
देवी मां शर्करा की स्थापना की थी। वही अब शाकंभरी तीर्थ है।
श्री
शाकम्भरी माता गाँव सकराय यह आस्था केन्द्र सुरम्य घाटियों के बीच बना शेखावटी प्रदेश के सीकर जिले में यह मंदिर स्थित है। यह मंदिर
सीकर से 56 किमी. दूर अरावली की
हरी वादीयों में बसा है। झुंझनूँ जिले के उदयपुरवाटी के समीप है। यह मंदिर उदयपुरवाटी गाँव से
16 किमी. पर है। यहाँ के आम्रकुंज, स्वच्छ जल का झरना आने वाले
व्यक्ति का मन मोहित करते हैं। इस शक्तिपीठ
पर आरंभ से ही नाथ संप्रदाय वर्चस्व रहा है जो आज तक भी है। यहाँ देवी शंकरा,
गणपति तथा धन स्वामी कुबेर की प्राचीन प्रतिमाएँ स्थापित हैं। यह
मंदिर खंडेलवाल वैश्यों की कुल देवी के मंदिर के रूप में विख्यात है। इसमें लगे
शिलालेख के अनुसार मंदिर के मंडप आदि बनाने में धूसर और धर्कट के खंडेलवाल वैश्यों
सामूहिक रूप से धन इकट्ठा किया था। विक्रम संवत 749 के एक
शिलालेख प्रथम छंद में गणपति, द्वितीय छंद में नृत्यरत
चंद्रिका एवं तृतीय छंद में धनदाता कुबेर की भावपूर्ण स्तुति लिखी गई है।
इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी
में किया गया था। भारत के आठशक्ति पीठों में से यह एक है। यह भव्य मंदिर विभिन्न
प्रकार के वृक्षों से घिरा है तथा कई प्रकार के औषधि वृक्ष भी इस शांत मालकेतु
घाटी (अरावली पर्वत) में पाये जाते हैं। शंकर गंगा नदी बारिश के दिनों में इस
मंदिर के पास से बहती है। भक्तों को पवित्र स्नान करने हेतु कई घाट बनवाये गये
हैं। इस मंदिर के आसपास अन्य महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में जटा शंकर मंदिर तथा श्री
आत्म मुनि आश्रम शामिल है। भक्तगण सालभर इस मंदिर में आते रहते हैं, लेकिन हिंदु कॅलेंड़र के अनुसार महिने के आठवे,
नौवें तथा दसवें दिन देवी भगवती की विशेष प्रार्थना के होते हैं।
नवरात्रों के दौरान नौ दिन का उत्सव यहाँ होता है।
इस तीर्थ का उल्लेख महाभारत, वनपर्व के तीर्थयात्रा प्रसंग में इस श्लोक के
मध्यान से किया गया है। श्लोक:
"ततो गच्छेत्
राजेन्द्र देव्याः स्थानं सुदुर्लभम,
शाकम्भरीति विख्याता त्रिषु लोकेषु
विश्रुता।"
उपाय: धन धान्य कि पूर्ती हेतु देवी
शाकंभरी कि पंचो-उपचार पूजन करने के बाद देवी के चित्र पर लौकी का भोग लगाएं।
मंत्र: ततोऽहमखिलंलोकमात्मदेहसमुद्भवै:।
भरिष्यामिसुरा: शाकैरावृष्टे:प्राणाधारकै:।
(शाकम्भरी) सकरायमाता मंदिर के शिलालेख
शाकंभरी
देवी के नाम का उल्लेख महाभारत, वन पर्व के तीर्थयात्रा-प्रसंग में है -
’ततो गच्छेत राजेन्द्र देव्या: स्थानं सुदुर्लभम,
शाकम्भरीति
विख्याता त्रिषु लोकेषु विश्रुता’ वन.८४,१३.
इसके
पश्चात शाकंभरी देवी के नाम का कारण इस प्रकार बताया गया है -
’दिव्यं वर्षसहस्रं हि शाकेन किल सुव्रता,
आहारं
सकृत्वती मसि मासि नराधिप,
ऋषयोअभ्यागता
स्तत्र देव्या भक्त्या तपोधना:,
आतिथ्यं
च कृतं तेषा शाकेन किल भारत तत:
शाकम्भरीत्येवनाम
तस्या: प्रतिष्ठितम’
वन. ८४,१४-१५-१६
नोट
- यह विवरण मुख्यत: रतन लाल मिश्र की पुस्तक शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा,
१९९८, पृ.३११ से ३१९ से अध्ययन हेतु लिया गया
है.
अरावली
की एक उपत्यका के रम्य प्राकृतिक परिवेश में स्थित शाकम्भरी (सकरायमाता) के मंदिर
में तीन प्राचीन शिलालेख उपलब्ध हैं.
प्रथम
शिलालेख मंदिर के एक द्वार पर लगा है जो सबसे प्राचीन है, यह
एपिग्राफिया इंडिका (Epigraphia Indica) के वोल्यूम सताईस
पृष्ठ २७-३३ पर प्रकाशित हुआ है। इसका समय विक्रम संवत ६९९ माना गया है। इस पर
ऐसियाटिक सोसाइटी वेस्टर्न सर्किल की १९३४ की रिपोर्ट में भी विचार हो चुका है।
डॉ. भंडारकर इसकी तिथि ८७९ वि. तथा श्री ओझा ७४९ वि. मानते हैं ,रतन लाल मिश्र लिखते हैं कि, खंडेला में जो शाकम्भरी
से पास ही है वोद्द के पुत्र आदित्य नाग ने अर्द्धनारीश्वर का मंदिर बनाया था।
 |
सीकर
जिले में उदयपुर वाटी के पास सकराय मां |
इसकी
तिथि डॉ. डी.सी. सरकार ने ८६४ वि. मानी थी. आदित्य नाग ने खंडेला में अपना मंदिर
बनाया था और सकराय में शाकम्भरी मंदिर के मंडप निर्माण के लिए अन्य दस गोष्ठियों
के साथ सम्मिलित हुआ।यह मान्यता साधार लगती है, इस आधार पर डॉ. डी.सी. सरकार
द्वारा सुझाई गयी तिथि वि. ८७९ स्वीकार करने योग्य है।
शाकम्भरी
देवी के स्थान पर लगे संवत ८७९ के शिलालेख से ज्ञात होता है की ११ वणिकों ने एक
संघ बनाकर एक अतीव सुन्दर मंडप शंकरादेवी के मंदिर के आगे बनाया. इन लोगों के नाम
मदन (धूसर वंश) गर्ग,
गनादित्य (धर्कट वंश) देवल, शंकर, आदित्यनाग आदि. सकराय प्रथम शिलालेख का
मूल पाठ
१.
ॐ रनदरदनदारनद्रुतसुमेरुरेनुद्भुतम सुगन्धि
मदिरामद-प्रभुदतालिझंकारितम
(तम्) अनेक रनदुंदुभिध्वनि विभिन्न गंडस्थलं
महागनपतेर्मुखम्
दिशतु भूरि भद्रानि व: (१) नृत्यनत्यास सांगहारम चरनभार परिखोभिता
क्षमातलाया:
प्रभष्टेन्दु प्रभायाम निशि विसृत नखोद्योत भिन्नान्धकारा ये लीलोद्वोलिताग्रां
विदधति
वितताम्भोज पूजाइव शासते हस्ताम् संपदा वो ददातु विदलित द्वेषिनश्चंडिकाया:
(२) मधुमद्जनु दृष्टि, स्पष्टनीलोत्पलाभों मुकुटमणि
मयूखै: रंजति: पीतवास: जलधर:
इव
विद्युच्छक्र चापानुविद्धो भवतु धनदनामों बुद्धिदां व: सुयक्ष:।
(३)
आसीद धर्म परायनेति महती प्रोद्दाम कीत्युज्जवले । वंशे धूसर संज्ञके गुनवतो
ख्यातो यशोवर्द्धन: यस्या स्ताखिल दोष्ण उन्नत भुज: पुत्रो:भवत संत्यवाग्। राम:
श्रेष्टिवरो वभूव च यतो श्रेष्टि सुतो मंडन: ।
(४)
आसीच्च मालिनी प्रकाश यशसि श्री मत्युदारे धरक्कट नाम्नी प्रतिदिनं शक्रर्धि
विस्पर्धिनी।
उच्चै मोदित मादरन् निजकुलं येनोदयं गच्छता। श्रेष्ठि: मंडन नामक:
संभवच्छ्रेष्ठि
यतो मद्वन: ।।
५)
तस्यापि अभूत सुत: श्रेष्ठि गर्गो धर्म परयण:. कुलीन:
शील
संपन्न: सततं प्रियदर्शन: .,
(६) श्रेष्ठिमंड
नाख्य:
प्रभूतम प्राप्नोत्यर्थम् गर्गा नामा च लक्षमीम् । यो श्रेष्ठित्वं
सर्वसत्वानुकंपा
सम्यक्
कुर्वाणों नितवन्तौ समाप्तिम् ।।
(७)
तथा भट्टीयक श्चासीद् वनिग् धर्कट
वंशज:।
सुनुस्तस्यापि अभूत धीमान् वर्द्धन: ख्यात सद्गुण:।
(८)
तस्य पुत्रौ महात्मानौ
सत्य
शौचार्जवान्वितौ वभुवतु गर्गना
दित्य
देवलाख्यावनन्दितौ।।
(९)
तथा वनिकच्छिवश्चासीत तत् पुत्रों जितेन्द्रिय:।
शंकरों
विष्णु वाकस्य तथासीत् तनय: शुचि:।।
(१०)
आदित्यवर्द्धन सुतो मंडुवाको:
भवत
सुधि:। वोद्दस्य आदित्य नामाख्य: पुत्रासीद् महदुयुति:
(११)
भद्राख्यो नद्धकस्या:भूत्
पुत्रों
मतिमताम्बर: । तथा द्दो
७.
(तन) संज्ञश्च ज्यूलस्या: भावत सूत: ..
(१२)
शंकर: सौन्धराख्यस्य
सुनुरासीदकल्मष:
। शुश्रुषानन्य मनसा पित्रो येनासकृत कृत: ।।
(१३)
तैर्यम् गोष्टिकै:
भूत्वा
सुरानामंडपोत्तम: कारित: शंकरादेव्या: पुरत: पुण्यवृद्धये.
(१४)
संवत ६९९
द्विराषाढ
सुदि
सकराय
दूसरा शिलालेख का (Sakrai
Inscription2)
दूसरा शिलालेख मंदिर के पार्श्व भाग पर लगा है.
श्री
ओझा इसे १०५६ वि.स. का मानते हैं।
मूल
पाठ
१.
(१०५) ६ श्रावण वदि। श्री शंकरादेव्याया मह (:)
२.
राज श्री दुल्लह राजन्य राज्ये दुसाध्य
३.
(शिव) हरिसुत तस्यैव भातृव्यज श्री
४.
(सिद्धरा)ज ताभ्यां मंडपं कारापितं। कर्म्मका
५.
(र आ) हिल सिंहटसुत: देव्यापादंक् नित्य प्र
६.
(णमति) (बहु) रूपसुत: देवरूपेन
 |
श्री शाकम्भरी माता मन्दिर, गाँव सकराय सीकर (राजस्थान) |
भावार्थ
संवत १०५६ श्रावण बदी १ को शंकरादेवी का मंडप महाराज श्री दुल्लहराज के राज्य में
दुसाध्य शिवहारी के पुत्र एवं उसके भतीजे सिद्धराज ने बनाया। कर्मकार का नाम आहिल था। जो सिंहट का पुत्र था, जो देवी
के चरणों में नित्य प्रणाम करता है। प्रशस्ति खोदी बहुरूप के पुत्र देवरूप ने।
सकराय तीसरा शिलालेख का वि.स.१०५५
 |
शाकम्भरी देवी के स्थान पर लगे संवत ८७९ के शिलालेख |
तीसरा शिलालेख वि.स.१०५५ का है।
इसका
उल्लेख रायल ऐसियाटिक सोसाइटी की रिपोर्ट के साथ ही एपिग्राफिया इंडिका (Epigraphia Indica) वो. ३८, भाग ७, पृ. ३२३,२४२ में भी इसका संपादन हुआ है। इस शिलालेख में प्राचीन प्रथा के अनुसार प्रथम
दो अंक छोड़ दिए हैं और केवल ५५ का अंकन है। संपादक ने प्रथम दो अंकों को १० मानकर शिलालेख
की तिथि १०५५ बताई है। इस सम्बन्ध में डॉ.
दशरथ शर्मा मानते हैं कि विग्रहराज का उत्तराधिकारी दुर्लाभराज द्वितीय सं. १०५३
में राज्य कर रहा था इसलिए सकराय शिलालेख में उल्लिखित विग्रहराज की पहचान
विग्रहराज तृतीय से करनी चाहिए ओर विलुप्त अंकों को १० की अपेक्षा ११ माना जाना
चाहिए।
इस
के अतिरिक्त एक और तथ्य भी प्रासांगिक प्रतीत होता है जो शिलालेख के काल निर्धारण
में सहायक होगा,
विग्रहराज की मृत्यु का ठीक समय हमें ज्ञात नहीं है। विग्रहराज
द्वितीय के समय का हर्ष-शिलालेख १०३० वि. का ज्ञात है। दुर्लाभराज १०५५ में गद्दी पर बैठ गया था। उस समय तक विग्रहराज की मृत्यु हो चुकी थी। नर्मदा
विग्रहराज की पुत्री थी जिसका विवाह वत्सराज के साथ हुआ था। उसके गोविन्दराज नामक पुत्र
हुआ था, उसकी पत्नी देयिका थी,
गोविन्दराज-देयिका की पुत्री देयिनी थी जिसने शाकम्भरी के मंदिर का जीर्णोद्धार या
पुनर्निर्माण करवाया था।
इस
प्रकार विग्रहराज,
गोविन्दराज और देयिनी ये तीन पीढियां व्यतीत हो चुकी थीं। देयिनी ने संभवत: अपनी वृद्धावस्था में
माता-पिता तथा स्वयं की पुन्यवृद्धि के लिए पितृग्रह में रहते हुए यह मंदिर बनवाया
था (पितृमातृभ्याम आत्मन: पुण्य वृद्धये) । इस प्रकार
विग्रहराज से लेकर देयिनी द्वारा मंदिर निर्माण के काल तक प्राय: १०० वर्ष का समय
व्यतीत हो चुका होगा। इस आधार पर शिलालेख की तिथि वि . १०५५ नहीं होकर वि. ११५५
मानना संगत प्रतीत होती है. [
शाकंभरी
देवी के १०५५ वि. (११५५ वि.) के शिला लेख से ज्ञात होता है कि देवी का मंदिर जो
ईंटों का बना था कालांतर में टूट फूट गया था। देयिनी ने इसका जीर्णोद्धार करवाया और द्रोणक नामक
गाँव अर्पित किया. (शाकंभरी शिलालेख श्लोक-१६)
मूल पाठ
जयतिमुनि
मनुजगीत: स(रभस) म् निरद्दारितारि राया (यौ) या: (य:) (१)
कृन्
(न) द्... रु...नूपुर-मुखर: स (लसतम्म) लम् छन्न: प...
२.
...क्षमैरिव स्फ़ुरद विकटपन्नगा मलयपाद्श्रीरिव। सुरत्नकटको ज्व(ज्ज्व)
लो
सुरगिरेश तति सन्निभा प्र...मृदाश्र (य) (२)
३.
...हितानीक: शक्तिर्मान विवुधारित हृत श्रीमद् विग्रहराजो भूच्चाहमानो गुहोपम:(३)
४.
....सद्धतवन्शे प्रभव: सद्वागुरा तस्यु नर्म्मदा (४) श्री बच्छराज
नृपते:
प्रहतारितस्य सामन्त चक्राकरराजहंसी. साजीजनद् विजित शत्रु जनोर्जितम् श्री गोविन्दराज (राज)...
५.राजालोकम
(कम्)। (५) हेलादलद विकट कुंभ कवाट मुक्त:
मुक्ताफलोच्चालितविस्फ़ुरितअंतरिक्षम्।
येन क्वनन् मुदुजाल प्रचलालि मालामालोडितम् श (स)
६.
लीलान (लान्)।। (६) देवं कर्मरतानित्यम् विनतानाम वरप्रदा: राजनीश्रीदेयिका,
कान्ता
तस्याभूद् देवतोपमा।। (७) को दानेनपूरित: प्रतिदिशम् कस्याश्रयोनोवत: को ।
७.
निवृतिम कस्याच्छ्रय नोद्धता। इत्येवं त्रिदेशेश्वरस्य भवने जेगीयते यश्शिचरम्
चित्रम्
चा(रण) चक्रकै: विरचितम् चन्द्रावदातंयश: ।। (८) अस्ति उन्नते: सुरगृहै:(ना)
८.
ना विधैद्विज वनिगवर वेश्मजालै:। सत श्रेष्ठि संसत महाजन सन्निवेशम श्री
पूर्णतल्लकपुरम्
प्रथितम पृथ्वीव्याम (व्याम्)। (९) श्रेष्ठि जाज्जक जयमात्रयो: (र) र्पितम्
९.
इदम् देवद्रोन्या-रम्य प्रदीप पंर्यतं लता व्यालोल पल्लवम्। कोकिला कुल
संघुष्ठं, मल्ली
माला निषेविताम्।। (१०) पवनापात संभ्रान्त किन्नरा:
१०.
तम् (तम) शिखालि (न्दी) केका कुलितम् हरि हारीत नादितम (तम्)। (११)
वृहदाद्रोण्याश्रितम्
श्रीमत् सिद्धगधर्व संस्तुतम्। शोधम् श्री शंकरादेव्या: पुरा केनापि
कारितम
(तम्)। (१२) विदीर्ण कूटशिखर (रम्)
११.
तितेष्ठकम् . देव्यास्तद् मन्दिरं जातं कालयोगाच्चला चलम् (लम्) तयोंन्नियोगे
देयिन्या: स्थाने
(घोसायी) तदायतनम् भूय: कारितम् रुचिमत्तरम (रम्) ।। (१४) जीवितम का...
१२.
संपदातितरलास्तरंगवत् यौवनानिसुचिरंनदेहिनाम् । इति एत्य जागतोहि अनित्याम् ।।
(१५)
१३.
यस्याश्च पितृ मातृभ्याम् आत्मन: पुण्यवृद्धये....
ग्रामो
द्रोनक संज्ञकश्च न्ययात्रेदापित:।। (१६) यावत् क्षितीह क्षितिधर: क्षणदाकरश्च
यावत्
क्षिनोति तिमिरम् रवि अंशुजालै:-वृंदेनृतमतामगनमुखर नृपुर राव रम्यम्।। (१७)
१४.
....द् मकरन्दविसर्पि विन्दुमत् भ्रमद्भ्रमर संज्ञ विवृद्धराव काले
विलोलपा...
रूम.... देवालयम्.... हितरुचिमद् विचित्रम्।। (१८)
१५.
शकरसुनुना पूर्वा विरचिता हीऐषा। वराहेनाल्प मेधसा उत्कीर्णा सूत्रधार
सिलागनेन
वोद्दक पुत्रेन संसंवत्सर ५५ माघ सुदि.
...........................................................................................................................
2-दूसरा
स्थान राजस्थान में ही सांभर जिले के समीप शाकंभर के नाम से स्थित है-
 |
जिले के सांभर कस्बे में अवस्थित |
शाकम्भरी देवी अशाकम्भरी देवी का प्राचीन शक्तिपीठ जयपुर जिले के
सांभर कस्बे में अवस्थित है। शाकम्भरी माता सांभर की अधिष्ठात्रीदेवी है और इस
शक्तिपीठ से ही इस कस्बे ने अपना यह नाम पाया। सांभर पर चौहान राजवंश का शताब्दियों तक असधिपत्य
रहा। 12वि शती के अन्तिम चरण में सांभर के प्रदेश में चौहानों का राज्य था। -
यहाँ सांभर झील शाकंभरी
देवी के नाम पर प्रसिद्ध है।
महाकाव्य महाभारत के
अनुसार यह क्षेत्र असुर राज वृषपर्व के साम्राज्य का एक भाग था और यहाँ पर असुरों
के कुलगुरु शुक्राचार्य निवास करते थे।
इसी स्थान पर शुक्राचार्य
की पुत्री देवयानी का विवाह नरेश ययाति के साथ सम्पन्न हुआ था। “देवयानी” को समर्पित एक मंदिर झील के पास स्थित है। यहाँ “शाकम्भरी देवी” को
समर्पित एक मंदिर भी उपस्थित है।
एक अन्य हिंदू मान्यता के
अनुसार, शाकम्भरी
देवी जो कि चौहान राजपूतों की रक्षक देवी हैं, सांभर प्रदेश के
लोग इस वन संपदा को लेकर होने वाले संभावित झगड़ों के लेकर चिंतित हो गये थे। देवी
ने यहां
स्थित इस वन को बहुमूल्य धातुओं के एक मैदान में
परिवर्तित कर दिया था। और इसे एक वरदान के
स्थान पर श्राप समझने लगे। लोगों ने देवी से अपना वरदान वापस लेने की प्रार्थना की
तो देवी ने सारी चांदी को नमक में परिवर्तित कर दिया।
सांभर, पौराणिक, ऐतिहासिक,
पुरातात्विक और धार्मिक महत्तव का एक सांस्कृतिक पहचान रही है शाकम्भरी
देवी के मंदिर की अतिक्ति पौराणिक राजा ययाति की दोनों रानियों देपयानी और
शर्मिष्ठा के नाम पर एक विशाल सरोवर व कुण्ड अद्यावधि वहां विद्यमान है जो इस
क्षेत्र के प्रमुख तीर्थस्थलों के रूप में विख्यात है। वर्तमान में देवनानी के नाम
से प्रसिद्ध इस तीर्थ का लोक में बड़ा माहात्म्य है जिसकी सूचक यह कहावत है “देवदानी” सब तीर्थो की नानी।
चौहान काल में सांभर और
उसका निकटवर्ती क्षेत्र सपादलक्ष (सवा लाख की जनसंख्या सवा लाख गांवों या सवा लाख
की राजस्व वसूली क्षेत्र) कहलाता था।
ज्ञात इतिहास के अनुसार
चौहान वंश शासक वासुदेव ने सातवीं शताब्दी ईं में सांभर झील और सांभर नगर की
स्थापना शाकम्भरी देवी के मंदिर के पास में की। सांभर सातवीं शताब्दी ई. तक
अर्थात् वासुदेवी के राज्यकरल से १११५ ई. उसके वंशज अजयराज द्वारा अजयमेरू दुर्ग या
अजमेर की स्थापना कर अधिक सुरक्षित समझकर वहां राजधानी स्थानांतरित करने तक
शाकम्भरी इस यशस्वी चौहान राजवंश की राजधानी रही। सांभर की अधिष्ठात्री और चौहान
राजवंश की कुलदेवी शाकम्भरी माता का प्रसिद्ध मंदिर सांभर से लगभग 15 कि.मी. दूर अवस्थित है।
सांभर के पास जिस पर्वतीय
स्थान में शाकम्भरी देवी का मंदिर है वह स्थान कुछ वर्षों पहले तक जंगल की तरह था
और घाटी देवी की बनी कहलाती थी।
समस्त भारत में शाकम्भरी
देवी का सर्वाधिक प्राचीन मंदिर यही है जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि देवी की
प्रतिमा भूमि से स्वतः प्रकट हुई थी। शाकम्भरी देवी की पीठ के रूप में सांभर की
प्राचीनता महाभारत काल तक चली जाती है। महाभारत (वन पर्व), शिव पुराण (उमा संहिता)
मार्कण्डेय पुराण आदि पौराणिक ग्रन्थों में शाकम्भरी की अवतार कथाओं में शत वार्षिकी
अनावृष्टि चिन्तातुर ऋषियोंपर देवी का अनुग्रह शकादि प्रसाद दान द्वारा धरती के
भरण पोषण की कथायें उल्लेखनीय है।
वैष्णव पुराण में
शाकम्भरी देवी के तीनों रूपों में शताक्षी, शाकम्भरी देवी का शताब्दियों से लोक में बहुत
माहात्म्य है। सांभर और उसके निकटवर्ती अंचल में तो उनकी मान्यता है ही साथ ही
दूरस्थ प्रदेशों से भी लोग देवी से इच्छित मनोकमना, पूरी
होने का आशीर्वाद लेने तथा सुख-समृद्धि की कामना लिए देवी के दर्शन हेतु वहां आते
हैं। प्रतिवर्ष भादवा सुदी अष्टमी को शाकम्भरी माता का मेला भरता है। इस अवसर पर
सैंकड़ों कह संख्या में श्रद्धालु देवी के दर्शनार्थ वहां आते हैं। चैत्र तथा आसोज
के नवरात्रों में यहां विशेष चहल पहल रहती है।
शाकम्भरी देवी के मंदिर
के समीप उसी पहाड़ी पर मुगल बादशाह जहांगीर द्वारा सन् १६२७ में एक गुम्बज (छतरी)
व पानी के टांके या कुण्ड का निर्माण कराया था, जो अद्यावधि वहां विद्यमान है।आलौकिक शक्ति और
माहात्म्य के कारण सैंकड़ों वर्षो से लोक आस्था का केन्द्र है।
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3- तीसरा मां शाकंभरी का मंदिर स्थान बेहट, सहारनपुर, उत्तरप्रदेश शिवालिक पर्वतमाला के घने
जंगल में –
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मां शाकंभरी का मंदिर स्थान बेहट, सहारनपुर, उत्तरप्रदेश |
उत्तरप्रदेश में सहारनपुर से 42 किलोमीटर दूर कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15
किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
इस सिद्धपीठ में बने माता के पावन भवन में माता शाकंभरी देवी, भीमा देवी, भ्रामरी
देवी व शताक्षी देवी की नौ देवियों में से, एक हैं मां
शाकंभरी देवी। कल कल छल छल बहती नदी की जल धारा ऊंचे पहाड़ और जंगलों के बीच
विराजती हैं माता शाकंभरी। कहा जाता है शाकंभरी देवी लोगों को धन धान्य का
आशीर्वाद देती हैं। इनकी अराधना करने वालों का घर हमेशा शाक यानी अन्न के भंडार से
भरा रहता है।
कैसे पहुंचे-
आप देश के किसी भी कोने से
सहरानपुर रेल या बस द्वारा पहुंच सकते हैं। सहारनपुर में बेहट अड्डे से शाकंभरी
देवी के लिए बसें हर थोड़ी देर पर मिलती हैं। 42 किलोमीटर का रास्ता तकरीबन डेढ
घंटे का है। शाकंभरी देवी के बस स्टाप से मंदिर के लिए एक किलोमीटर का रास्ता पैदल
तय करना पड़ता है। मां का मंदिर शिवालिक पर्वतमाला के घने जंगल में नदी के किनारे
है। मंदिर तक पहुंचने के लिए शाकंभरी नदी से होकर रास्ता जाता है। थोड़ा रास्ता
जंगल से होकर भी है। पथरीली राहों के साथ ही बरसात के दिनों में नदी में पानी भी
रहता है। पहाड़ों पर तेज बारिश होने पर नदी में पानी बढ़ जाता है। तब मंदिर जाना
मुश्किल है। इसलिए बरसात में दर्शन करने वालों को थोड़ी सावधानी बरतनी चाहिए। माता
शाकंभरी के मंदिर के पास प्रसाद की दुकानें और खाने पीने से स्टाल है। मंदिर पास
रहने के लिए आश्रम भी है। अगर मंदिर पहुंचने में शाम हो जाए और लौटना मुश्किल हो
तो वहीं रूका जा सकता है। मंदिर के पास एक संस्कृत स्कूल और जिला प्रशासन का
बनवाया गया रैन बसेरा भी है। शाम को 5.45 बजे के बाद माता शाकंभरी से वापस आने के
लिए बसें नहीं मिलतीं। ऐसी हालत में आपको मंदिर के पास ही रूकना पडेगा।
बेहट शाकंभरी देवी का
इतिहास
 |
कस्बा बेहट से शाकंभरी देवी का मंदिर 15 किलोमीटर1 |
कहा जाता है कि यहां सती
शीश गिरा था। शाकंभरी
देवी के मंदिर में माता शाकंभरी के दाईं ओर भीमा और भ्रामरी और बाईं और शीताक्षी
देवी प्रतितिष्ठितहै। भारत की शिवालिक पर्वत श्रेणी में माता श्री
शाकंभरी देवी का प्रख्यात तीर्थस्थल है। दुर्गा पुराण में वर्णित 51 शक्तिपीठों
में से एक शाकंभरी सिद्धपीठ जिले के शिवालिक वन प्रभाग के आरक्षित वन क्षेत्र में स्थित
है। यहां की पहाड़ियों पर पंच महादेव व भगवान विष्णु के प्राचीन मंदिर भी स्थित
हैं। इस पावन तीर्थ के आसपास गौतम ऋषि की गुफा, बाण गंगा व प्रेतसीला
आदि पवित्र स्थल स्थापित हैं। यहां वर्ष में तीन मेले लगते हैं, जिसमें शारदीय नवरात्र मेला अहम है।
शिवालिक घाटी में माता
शाकंभरी आदि शक्ति के रूप में विराजमान हैं। गर्भगृह में माता शाकंभरी, भीमा, भ्रांबरी व शताक्षी देवियों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मान्यता है कि
सिद्धपीठ पर शीश नवाने वाले भक्त सर्व सुख संपन्न हो जाते हैं। यह भी मान्यता है
कि मां भगवती सूक्ष्म शरीर में इसी स्थान पर वास करती हैं। जब भक्तगण श्रद्धा
पूर्व मां की आराधना करते हैं तो करुणामयी मां शाकंभरी स्थूल शरीर में प्रकट होकर
भक्तों के कष्ट हरती हैं।
भूरादेव मंदिर –
देवताओं ने माता से वेदों
की प्राप्ति की, ताकि सृष्टि का संचालन सुचारु रूप से चल सके। अंबे भवानी की जय-जयकार
सुनकर मां का एक परम भक्त भूरादेव भी अपने पांच साथियों चंगल, मंगल, रोड़ा, झोड़ा व मानसिंह सहित
वहां आ पहुंचा। उसने भी माता की अराधना गाई। अब मां ने देवताओं से पूछा कि वे कैसे
उनका कल्याण करें ! इस प्रकार मां के नेतृत्व में देवताओं ने
फिर से राक्षसों पर आक्रमण कर दिया। युद्ध भूमि में भूरादेव और उसके साथियों ने
दानवों में खलबली मचा दी। इस बीच दानवों के सेनापति शुम्भ निशुम्भ का भी संहार हो
गया। ऐसा होने पर रक्तबीज नामक दैत्य ने मारकाट मचाते हुए भूरादेव व कई देवताओं का
वध कर दिया। रक्तबीज के रक्त की जितनी बंूदें धरती पर गिरतीं उतने ही और राक्षस प्रकट
हो जाते थे। तब मां ने महाकाली का रूप धर कर घोर गर्जना द्वारा युद्ध भूमि में
कंपन उत्पन्न कर दिया। डर के मारे असुर भागने लगे। मां काली ने रक्तबीज को पकड़ कर
उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। उसके रक्त को धरती पर गिरने से पूर्व ही मां ने चूस
लिया। इस प्रकार रक्तबीज का अंत हो गया। जनश्रुति यह है कि, अब
शेर पर सवार होकर मां युध्द भूमि का निरीक्षण करने लगीं। तभी मां को भूरादेव का शव
दिखाई दिया। मां ने संजीवनी विद्या के प्रयोग से उसे जीवित कर दिया तथा उसकी वीरता
व भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि जो भी भक्त मेरे दर्शन हेतु आएंगे वे
पहले भूरादेव के दर्शन करेंगे। तभी उनकी यात्रा पूर्ण मानी जाएगी। मेरे दर्शन से
पूर्व जो भक्त भूरादेव के दर्शन नहीं करेगा, उसकी यात्रा
पूर्ण नहीं मानी जाएगी।
इस प्रकार देवताओं को
अभयदान देकर मां शाकुम्भरी नाम से यहां स्थापित हो गईं। हरियाणा, उत्तर प्रदेश व आसपास के कई
प्रदेशों के निवासियों में माता को कुल देवी के रूप में पूजा जाता है। परिवार के
हर शुभ कार्य के समय यहां आकर माता का आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। लोग धन धान्य
व अन्य चढ़ावे लेकर यहां मनौतियां मांगने आते हैं। उनका अटूट विश्वास है कि माता
उनके परिवार को भरपूर प्यार व खुशहाली प्रदान करेंगी। हर मास की अष्टमी व चौदस को श्रद्धालु
यहां आते हैं। स्थान-स्थान पर भोजन बनाकर माता के भंडारे लगाए जाते हैं। माता के
मंदिर के इर्द-गिर्द कई अन्य मंदिर भी हैं। मुख्य मंदिर से एक किमी पहले भूरादेव
मंदिर है, जहां श्रद्धालु प्रथम पूजा करते हैं। मुख्य मंदिर
के निकट वीर खेत के नाम से प्रसिद्ध मैदान है। इसके बारे में मान्यता है कि माता
शक्ति ने यहां महासुर दुर्गम सहित कई दैत्यों का वध किया था, तभी मां जगद्जननी दुर्गा कहलाई।
सिद्धपीठ परिक्षेत्र में
पहाडि़यों पर एक ओर छिन्नमस्ता देवी व कुछ फर्लाग दूर माता रक्तिदंतिका देवी के
भव्य मंदिर हैं। इस पंचकोसी क्षेत्र में पांच स्वयं भू: शिवलिंग हैं, जिसके दर्शन मात्र से ही
चारों धाम की यात्रा का पुण्य प्राप्त होने की मान्यता है।
इतिहास में भी
रहा बेहट शाकंभरी का महत्व
सिद्धपीठ धार्मिक ही नहीं
एतिहासिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। चंद्रगुप्त व चाणक्य भी सेना के गठन के लिए
यहां आए थे। इस सिद्धपीठ की तमाम व्यवस्थाएं जसमोर रियासत घराना करता है। इस घराना
का संबंध कलिंग राज्य से बताया जाता है। इसके अनुसार माता शाकंभरी उनकी कुलदेवी
है। मंदिर की व्यवस्था पहले राणा इंद्रसिंह व उसके बाद उनके पुत्र राणा कुलवीर
सिंह तथा उनके देहांत के बाद उनकी पत्नी धर्मपत्नी रानी देवलता व पुत्र कुंवर आदित्य
प्रताप राणा, कुंवर
सानिध्य प्रताप राणा व कुंवर आतुल्य प्रताप राणा संभाल रहे हैं।
आस्था को संजोए बेहट, शंकराचार्य आश्रम -
सिद्धपीठ परिक्षेत्र में
द्वारिका एवं ज्योर्ति पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती
जी महाराज का आश्रम यहां शोभा बढ़ाता है। आश्रम में श्रद्धालुओं के ठहरने व भंडारे
आदि की सुविधा के लिए करीब 150
कमरे बने हैं। आश्रम व्यवस्थापक संत संघर्ष समिति के राष्ट्रीय
अध्यक्ष महंत भैरवतंत्राचार्य श्री सहजानंद जी ब्रह्मचारी श्रद्धालुओं की
सेवा-सुश्रुषा की देखरेख करते हैं। यहां सभ्यता, संस्कृति एवं
धार्मिक आस्था का संचार करता संस्कृत विद्यालय है।
लेखक एवं संकलन कर्ता : पेपसिंह राठौड़ तोगावास
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very good article . thank you :-)
ReplyDeleteजय माता दी 🙏🙏🙏🙏
ReplyDeleteVery good jai mata sakambhri hmari bhi kuldevi yhi mata h
ReplyDeleteजगत जननी जगदम्बे श्री ब्रह्माणी रूद्राणी शाकम्भरी मैया की जय हो
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